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ग्यारहवाँ बच्चा

gyarahwan bachcha

सुखपाल

सुखपाल

ग्यारहवाँ बच्चा

सुखपाल

और अधिकसुखपाल

    पत्नी कहती है...

    मर्द निरे बच्चे होते हैं

    मेरे भीतर महामर्द

    अनुभव करता हीन और ठिगना

    ख़ुद को बड़ा साबित करने को

    मैं पत्नी के साथ वही व्यवहार करता हूँ

    जो बड़े बच्चों को

    पाठ सिखाने के लिए करते हैं सदा

    वह सारे पाठ नहीं सीखती

    तुम भी बच्चे हो

    कहती रहती है मुझे भी

    मेरे भीतर भयभीत, घायल

    पति परमेश्वर कहता है—

    तुम तो बच्चा ही कहोगी ईश्वर को भी

    यह हँसती और आगे कहती—

    यदि वह ख़ुद बच्चा होता

    तो बच्चों और फूलों में

    कभी नज़र आता

    एक दिन थक-हारकर

    ईश्वर के पास सब हथियार

    पूछा उससे मैंने—

    “तुम यों लघु क्यों ठहराती हो मुझे?”

    वह मेरे साथ यों सटकर बैठी

    जैसे कभी सटी ही नहीं थी

    मेरे सिर पर हाथ फिराकर

    ममतामयी बोल उठी :

    “तुम्हें लघु या छोटा नहीं

    अपना बना रही हूँ, आत्मीय

    अपने भीतर इतना गहरा

    मुझे पार करके ही कोई

    तुम तक पहुँच सकता है...

    फिर मेरे गाल पर हल्की-सी

    चपत लगाती बोली :

    “अपने लघुत्व में तुम

    खोए रहे

    इतनी साधारण बात भी

    तुम्हें समझ नहीं आई?

    प्रथम बार समझा मैं

    क्यों पुरातन ऋषि

    आशीर्वाद देते थे नवीन

    तुम्हारे दस बच्चे हों

    और तुम्हारा पति

    तुम्हारा ग्यारहवाँ बच्चा हो।”

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 319)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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