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घर में शोर

ghar mein shor

विष्णु नागर

अन्य

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विष्णु नागर

घर में शोर

विष्णु नागर

और अधिकविष्णु नागर

    जब घर में झाड़ू लगती है, बर्तन मँजते हैं

    कपड़े धुलते हैं, खाना बनता है

    तो सामान रखने-उठाने का

    नल से पानी गिरने का

    बर्तनों के मँजने-धुलने का

    कूकर की सीटी बजने का शोर होता ही है

    इस घर में कविता भी लिखी जाती है जिसका कोई शोर नहीं होता

    कवि के अलावा किसी को पता भी नहीं चलता

    कि कब इस घर में कविता लिख ली गई

    (और पता चल भी जाए तो किसे परवाह है)

    मैं पत्नी से कहता हूँ देखो एक तरफ़ तुम्हारा काम है

    और दूसरी तरफ हमारा काम

    हमारा काम कितना शोरहीन है

    तो वह कहती है तो ठीक है तुम अपनी कविता से

    घर की झाड़ू लगा दिया करो

    बर्तन माँज दिया करो

    कपड़े धो दिया करो

    घर में कोई शोर नहीं होगा

    मुझे क्या शिकायत है

    स्त्री-मुक्ति में कविता के इस ऐतिहासिक योगदान को भला कौन भूल सकेगा

    मैं तो बिल्कुल ही नहीं भूलूँगी

    लेकिन अभी तो हालत यह है कि

    क्योंकि तुम शायद कविता लिख रहे होंगे

    इसलिए मैं तुमसे यह कहने नहीं आती

    मैं रोटी बना रही हूँ तुम ज़रा पौधों को पानी दे दो

    मैं कपड़े धो रही हूँ, तुम ज़रा उन्हें सुखा दो

    जो शोर से डरता है वह कवि कैसे बन जाता है महाशय?

    मुझसे इतना कहकर वह झाड़ू लगाने में व्यस्त हो गई

    वह मुस्कुराई तक नहीं और मुझसे कह गई

    ज़रा देखते रहना

    कहीं दूध उबल जाए।

    स्रोत :
    • रचनाकार : विष्णु नागर
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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