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वे हाथ होते हैं

we hath hote hain

वेणु गोपाल

वेणु गोपाल

वे हाथ होते हैं

वेणु गोपाल

और अधिकवेणु गोपाल

    दुश्मनों की ख़ुशी पर मुझे कुछ नहीं

    कहना है। दोस्तों की

    उदासी ही

    मुझसे यह कविता लिखवा रही है।

    जिन अँधेरे रास्तों पर सफ़र

    शुरू हुआ था—

    वे एकाएक राज-पथ करार दे दिए गए हैं—

    वहाँ

    अब नियॉन-लाइटें जगमगाने लगी हैं

    और मेरे दोस्त,

    जनता के लिए विशेष रूप से निर्मित

    फ़ुटपाथों पर खड़े

    मोटरों का फ़र्राटे से गुज़रना देख रहे हैं

    कि बुझी मशालों से धुआँ उठ रहा है और

    वे खाँसते हुए बुदबुदा रहे हैं

    कि विरोध के नाम पर

    इससे अधिक वे और कर भी क्या सकते हैं?

    जिन जंगलों से

    निमंत्रण आया करते थे

    वे भी तो काट दिए गए हैं

    वहाँ

    अब ख़ूब लंबे-चौड़े

    मैदान बनाए जा रहे हैं

    जहाँ

    फ़ौजें नियमित रूप से

    क़वायद किया करेंगी।

    और मेरे दोस्त उदास हैं।

    उनकी उदासी

    उन्हें

    जाने

    किन-किन

    दोग़ले अख़बारों के पीछे

    चलने पर मजबूर

    कर रही है। वे

    पढ़ रहे हैं—वे सुन रहे हैं—वे

    देख रहे हैं—

    कि इतने गिरफ़्तार—

    कि इतनीं बंदूक़ें ज़ब्त—

    कि इतने बम—कि इतने—

    कि इतने

    उनके दाढ़ी बढ़े चेहरों पर

    डर की परछाइयों का जमाव हो रहा है।

    उनकी आँखों की चमक में

    आतंक घुलना शुरू हो गया है।

    वे धुँधली पड़ती जा रही हैं।

    फिर भी

    वे घूर रहे हैं

    अख़बारों को। और

    मैं यह कविता लिख रहा हूँ।

    सिर्फ़

    उन्हें यह कहने के लिए

    कि वे क्यों नहीं सुन रहे हें

    उस आवाज़ को

    जो स्वस्थ शिराओं में

    रक्त के बहने से होती है?

    क्यों नहीं पढ़ते उन ख़बरों को

    जो भविष्य के पृष्ठों पर

    इतिहास की क़लम लिख रही है?

    क्यों नहीं देखते उन हाथों को

    जो अपने आप में

    किसी बंदूक़, किसी बम या किसी

    बारूद-भंडार से कम नहीं होते?

    आख़िरकार

    फ़ैसला तो वे हाथ ही करेंगे—

    वे हाथ—जिनमें

    वक़्त आने पर

    वक़्त बंदूक़ें थमा दिया करता है

    और फिर फ़ायरों के बीच क्रांति का जन्म

    होता है।

    वे हाथ—जो

    लगातार उग रहे हैं—बरस रहे हैं—

    अवतार से ले रहे हैं—

    खेतों में, खलिहानों में, सड़कों पर, गलियों में

    वे हाथ—जो

    पत्थर होते हैं, मोम होते हैं, आग

    होते हैं, पानी होते हैं और

    सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे

    हाथ होते हैं—

    एकदम हाथ!

    और

    बंदूक़ों, बमों और बारूद-भंडारों के नियंता

    इन हाथों के जन्म लेने की ख़बर

    मैं

    अपने दोस्तों को सुनाना

    चाह रहा हूँ

    ताकि उनकी उदासी कम हो।

    और

    इसलिए यह कविता लिख रहा हूँ।

    स्रोत :
    • पुस्तक : हवाएँ चुप नहीं रहतीं (पृष्ठ 78)
    • रचनाकार : वेणु गोपाल
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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