कितना आसाँ है
तुम्हारे लिए वतनपरस्त होना
क्यूंकि तुम्हारी वतनपरस्ती का बोझ
तुम ख़ुद नहीं दूसरे उठाते हैं
जैसे यह बात इन दूसरों के नाम रक़म है
कि वे हर कुछ दिनों पर ग़द्दार निकलते रहें
और बैठे-बिठाए तुम्हारी वफ़ादारी का वक़ार बढ़ता रहे!!
बिना ख़ास कोई ज़हमत उठाये!!
कितना मज़ेदार है ना कि तुम्हें
खिड़की से गर्दन भी नहीं निकालनी पड़ती
और देशभक्ति तुम्हारे घर महीने की रसद की तरह पहुँच जाती है!!
पर इन दिनों तुम कुछ ज़्यादा ही दरियादिल नज़र आते हो
ग़द्दारी की अदायगी तुमने इन ‘दूसरों’ पर इतनी आसान जो कर दी है!
बस कभी तुमसे बड़ी दाढ़ी रख लेनी होती है
कभी तुमसे जुदा विचार तो कभी
कुछ ऐसा खा लेना होता है
जो गाहे-बगाहे तुम्हें ईश्वर की याद दिला देता हो!!
बाकी बची-खुची रस्में तुम खुद ही निभा लेते हो!!
सचमुच इस ‘हद-ए अख़लाक़’ का जवाब नहीं
जिसे तुमने एक बेमुरव्वत डबल बेड के नीचे से
निकली ईंटों से साफ़-साफ़ मुक़र्रर कर दिया है!!
पर ऐसा भी नहीं कि
सिर्फ दूसरे ही सिद्ध करते हों तुम्हारी वतनपरस्ती
तुम भी धनतेरस पर कार, अक्षय-तृतीया पर सोना,
और फ्लिपकार्ट पर दुर्गा सप्तशती ख़रीद कर
अपनी भूमिका निभा ही देते हो!!
फ़र्क़ यह है कि जब तुम यह भूमिकाएँ निभाते हो
तो तुम्हारे लिए वतनपरस्ती
कोई तक़ाज़ा नहीं एक जिंसी हक़ होता है!!
कोला पीने से लेकर गुढ़ी पाड़वा मनाने तक
कुछ भी तुम्हें सहज ही भारतीय बना जाता है
ज़हे-नसीब!!
इतना आसान तो राम के लिए भगवान बनना भी न था!!
कभी सोचता हूँ तो लगता है
ये कैसा सफ़र तय कर लिया तुमने
जहाँ ख़िरदमंदों का क़ातिल होना
तुम्हें वतनपरस्त बना देता है!!
ये कौन-सा मक़ाम है
जहाँ इतना आसाँ है तुम्हारे लिए
वतनपरस्त होना कि ज़िंदगीपरस्त होना नामुमकिन-सा हो गया है!
ये और बात है कि ज़िंदगी को छोड़ो
अब तो ग़ारत-ए-जाँ ही तुम्हारा ईमान नज़र आता है
और वतन?? तुम्हारी वतनपरस्ती ख़ैर करे
वो तो जब तक है बस तब तक ही है!!
- रचनाकार : सौम्य मालवीय
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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