मास्टर जी!
हम शुक्रगुज़ार हैं कि तुमने
हमें पढ़ाया
जाहिल से आदमी बनाया
एक पूरी उम्र तुमने
हमको पढ़ाने में लगाई
एक नहीं, दो नहीं
हमारे गाँव की तीन पीढ़ियाँ
तुमने पढ़ाईं
पढ़ाई-लिखाई के अलावा
दुनियादारी की बहुत-सी बातें भी
तुमने सिखाईं
मास्टर जी! तुम नहीं जानते
तुम्हारे लिए हमारे मन में
कितनी श्रद्धा थी, कितना सम्मान था
तुम हमारे कितने ‘बड़े’ थे।
तुम्हारी सेवा को
हम अपना धर्म समझते
‘मास्टर जी का काम
कौन पहले करेगा’
इस बात पर हम आपस में झगड़ते
हम ख़ुशी-ख़ुशी
तुम्हारा हुक़्क़ा माँजते
तुम्हें चिलम भरकर देते
तुम्हारे लोटे में
पानी भरने को भी
हम लालायित रहते
किंतु तुमने पानी पीने के
अपने पीतल के लोटे को
हमारा हाथ कभी नहीं लगने दिया
लोटे में पानी सदैव
सवर्ण छात्रों से ही भरवाया
मास्टर जी!
हम शुक्रगुज़ार हैं कि तुमने
हमें पढ़ाया,
प्रगति का रास्ता दिखाया
लेकिन समता के मार्ग पर तुम
ख़ुद नहीं चल पाए
हमने रखा तुम्हें
वर्ण और जाति से ऊपर
पर नहीं उठ पाए तुम अपनी
जातीय अहंमन्यता की संकीर्णता से
तुमने सुनाईं हमें प्रेम की कहानियाँ
सिखाया भाई-चारे का सबक़
जगाए तुमने राष्ट्रीयता के भाव भी
हमारे भीतर
लेकिन नहीं चूक पाए तुम
पढ़ाने से—
वर्णवाद का पहाड़ा।
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 76)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : जयप्रकाश कर्दम
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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