सीरिया और इराक़ के बच्चों के लिए
siriya aur iraq ke bachchon ke liye
एक
बच्चे जिन्हें स्कूल जाना था
दोस्तों से मिलना था आज शाम, ठीक पाँच बजे फुटबॉल के मैदान में
उनके सब कार्यक्रम रद्द कर दिए हैं तानाशाहों ने
वे जा रहे हैं अपना शहर, अपना घर छोड़
जल चुके आँगन के पेड़ के नीचे उन्होंने दफ़न की हैं कुछ चीज़ें
जिन्हें वे साथ नहीं ले जा सकते :
एक गुड़िया, जिसकी एक आँख अब बंद नहीं होती,
एक बोलने वाला मेंढक, जो अब शांत है, और बरसात को नहीं पहचानता
एक उछलने वाला लट्टू, जिसकी कील टूट चुकी है—पर उसके रंग अब भी मोहक हैं—
एक रेलगाड़ी, जिसके पहिये रेल से उतर चुके हैं
एक हाथी, जिसका नाम जम्बो है, पर अब सर्कस के लायक़ नहीं रहा
एक ज़िराफ़, जिसकी गर्दन में बल आ गया है
ये सब वे छोड़े जा रहे हैं पीछे
लौट के आने के लिए
उन शहरों से जहाँ स्कूल अभी खुले हैं
जहाँ बच्चे सीख रहे हैं दुनिया का भूगोल, इतिहास—जिसमें बच्चों का कोई ज़िक्र नहीं—
और राजनीति के मायने—जो सिर्फ़ बड़ों का खेल है—
गणित सबको नहीं आता, जिन्हें आता है
वे गिनना नहीं चाहते हताहतों की संख्या
जिनमें उनके अपने प्रिय, बहुत, बहुत प्रिय लोग हैं
कोई एक, उस प्रिय का आख़री फ़ोटो लिए अकेला ही चला जा रहा है
दुनिया से निपटने,
उसके आँसू उसके अपने हैं, जिन्हें गर्म धरती गिरते ही सोख लेती है
आज 21 जून, जब साल का सबसे बड़ा दिन और सबसे छोटी रात है
बच्चे सारा दिन चले हैं और रुके नहीं हैं
दुनिया के सब तानाशाहों—जो किसी भी तरफ़ से लड़ रहे हों—से अपील है
आज सबसे छोटी रात, इन्हें सोने दें
बमों के धमाके रोक दें, रोक दें लड़ाकू विमानों की उड़ानें, फ़ौजों के बूटों की दिलों को दहलाने वाली आवाज़ें
बच्चों की आँखें भारी हो चली हैं, क़दम शिथिल और आवाज़ें धीमी
आज रात इन्हें सोने दें, कल इन्हें फिर कूच करना है
उन शहरों की और जहाँ सामान्य होने की कोशिश अभी जारी है।
दो
कल फिर चलना है
सबसे प्रिय गुलाबी सैंडिल की एड़ी निकलने लगी है
उसकी छुपी कीलें उभर आई हैं
आसमानी फ़्रॉक मैला, मटमैला हो चला है
यूँ आकाश का रंग भी अब आसमानी कहाँ रहा
वहाँ से तो बस आग, आग बरस रही है
स्कूल के बस्ते, और खेलों के जूते छोड़
किस ज़ियारत को ये बच्चे चल पड़े हैं
जबकि ख़ुदा ख़ुद हर जगह से ग़ायब है
ये कैसे हाथ हैं जो बच्चों के मुलायम चेहरों को बंदूक़ों से छू रहे हैं
ये किस प्रतिहिंसा की छाया पल भर को लहराई बंदूक़ के घोड़े पर
ये कौन सो गया है आँखें खोल लेबनान पहुँचने से पहले
और कौन कर्बला में फिर प्यासा भटक रहा है
कौन है जो बालों में कंघी फिराने से कतराता था
और आज कँटीली तारों के बालों में फिरने से भी नहीं रोया
कौन है जो बहादुरी के मायने जाने बग़ैर साहस की परिभाषा हो रहा है
ये किस जगह का पता पूछ रहे हैं
कोई इनके सवालों का जवाब क्यों नहीं देता
एक बार फिर ये साबित हो रहा है, दुनिया में सवाल ज़्यादा और जवाब कम हैं
जो जवाब दिए जा रहे हैं बच्चे उन्हें ख़ारिज कर रहे हैं अपने आँसुओं से
उन्हें नहीं चाहिए नक़्शे
वे सिर्फ़ लौट जाना चाहते हैं अपने पुराने घरों को
और चाहते हैं निकल आएँ तस्वीरों से बाहर उनके अपने जो खो गए हैं
तीन
एक रेलगाड़ी धड़धड़ाती हुई शहर से गुज़रती है
और रात को सपनों में लौटती है
छूटती जाती ट्रेन बनकर
आप जो हर वक़्त सफ़र में हैं, सोते-जागते
चौंक कर उठ बैठते हैं और पाते हैं
प्लेटफ़ॉर्म की पिघली हुई गोल घड़ी
क़दमों के पास पड़ी है
और समय के अंक रेल की पटरियों की ओर बढ़ रहे हैं
यह ट्रेन जो छूट गई है पीछे, बहुत पीछे
आप इससे आगे निकल आए हैं
पर धरती के गोल होने के बावजूद
इस छूटी हुई ट्रेन के सिरे को फिर से पकड़ने में नाकाम रहे
खिड़कियों से बाहर झाँकते इसके मुसाफ़िर
कितने जाने-पहचाने हैं
हाथ हिलाकर विदा ले रहे हैं आपसे
फिर न मिलने के लिए
इनके प्लेटफ़ॉर्म छूट गए हैं
ये यात्रा पर हैं उन ट्रेनों को पकड़ने के लिए
जो दूसरों के सपनों से गुज़रकर
2/3 स्टेशनों पर सीटी बजाती, धुआँ छोडती
गार्ड की हरी झंडी के इंतज़ार में उस पुल के पार जाने को तैयार हैं
वहाँ कुहासे के उस पार जहाँ रद्द यात्राएँ बहाल होती हैं।
चार
ठीक 1 बज कर 5 मिनट पर
या ऐसे ही कुछ... बज कर कुछ मिनट पर
ट्रेनें चल पड़ती हैं और कभी नहीं रुकतीं
उस मुसाफ़िर के लिए
जो थोड़ी देर से घर से चला था
और समय का हिसाब नहीं रख पाया
बावजूद इसके कि ऑटो वाले को सख़्त ताक़ीद की थी
समय से पहुँचाने की
हल्की आवाज़ में धमकी भी दी थी
किराया फेर लेने की अगर ट्रेन न मिली तो
पर ट्रेनें कब इंसानी कमज़ोरियों को मानती हैं
वे तो कुछ बज कर कुछ मिनट पर चलती हैं
और सिर्फ़ लाल और हरे के बाइनरी कोड को पहचानती हैं
पीछे मुड़कर नहीं देखतीं
उस मुसाफ़िर को जो हाँफता हुआ, सूटकेस थामे
बेतहाशा दौड़ा जा रहा है इस कोशिश में कि किसी तरह
समय के सिरे को फिर से पकड़ ले।
- रचनाकार : विजया सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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