फ़र्स्ट टाइम क्राइम एंड पनिशमेंट या ये वे नन्हे फूल हैं जो...
first time crime enD panishment ya ye we nannhe phool hain jo
अविनाश मिश्र
Avinash Mishra
फ़र्स्ट टाइम क्राइम एंड पनिशमेंट या ये वे नन्हे फूल हैं जो...
first time crime enD panishment ya ye we nannhe phool hain jo
Avinash Mishra
अविनाश मिश्र
और अधिकअविनाश मिश्र
वे शायद सुधर रहे थे तब ही ख़बर आई कि
वे एक मुठभेड़ में मार दिए गए...
पहले जुर्म की स्मृतियाँ नहीं होतीं
लेकिन एक मस्तिष्क में वह वैसे ही विकसित होता रहता है
जैसे इस संसार में एक वृक्ष या एक देह या देह में मस्तिस्क
आपराधिक प्रवृत्ति के इस विकासक्रम के वे विस्मृत बीज कहाँ हैं?
इस प्रश्न पर विचार करते हुए सामान्यताएँ भी वैसे ही विकृत नज़र आती हैं
जैसे कि अपराधी... लेकिन वे विस्मृत बीज कहाँ हैं...?
गर्भ में नन्हे-नन्हे पैरों से बेवक़्त और बार-बार माँ को पीड़ा पहुँचाना
और बेवक़्त और बार-बार ही फ़ारिग़ होना एक असमर्थ देह की ज़रूरतों से
वे एक उम्र तक जुर्म क्या है नहीं समझते
लेकिन माँएँ दर्द को विकल्पों में से नहीं चुनतीं
वहाँ वह इतना शाश्वत, सहज और अनिवार्य होता है कि बस और क्या कहा जाए...
लेकिन वे एक उम्र तक दर्द क्या है नहीं समझते
नए-नए उभरते हुए दाँतों की प्रखरता माँ के गुदगुदे स्तनों पर दर्शाना
वे उम्रें गुज़ार देते हैं और दर्द क्या है नहीं समझते
बाग़-बाग़ीचों से गुज़रते वक़्त फूलों और पत्तियों को तोड़ते हुए चलना
बैठना जब भी घास पर तब उसे उखाड़ते रहना
मिल जाए जो भी सिरा उसे उधेड़ते रहना
ज़मीं पर रेंगती हुई चींटियों को कुचलते हुए चलना
ठोकरों और ठोकरों से जूतों को जल्दी-जल्दी फटने देना
पतंगों को उड़ाना कम फाड़ना ज़्यादा
और होमवर्क की कॉपियों को हवाई जहाज़ बनाकर उड़ा देना
या उनकी कश्तियाँ बनाना बारिश के मौसम में
और इसी मौसम में स्कूल से लौटते वक़्त भीगना और भिगाना उन किताबों को
जिन्हें मुहावरे में माँ-बाप ने पेट काटकर ख़रीदा था
बाद इसके बीमार होकर अनुपस्थित होना कक्षाओं से एक लंबे वक़्त के लिए
फिर बीमारियों के महत्त्व को समझते हुए उनके बहाने बनाकर पढ़ाई से दूर बने रहना
स्कूल की ड्रेस में स्कूल न जाकर भटकना शहर के कूचों में बीड़ियाँ फूँकते
और यह खोजते हुए कि वे आख़िर कहाँ निकलते हैं
दीवाल पर बैठी मक्खियों के मटमैले ख़ून को हथेली पर जाँचना
गुलेल से गौरैयों के घोंसले तबाह करना
और मधुमक्खियों के छत्तों पर आज़माना तीर-कमान
गायों की आँखों में चुभोना सींकें और तितलियों को चिंदी-चिंदी करना
भमीरी के पैरों में धागे बाँधकर उड़ाना और कुत्तों की दुमों में बाँधना पटाख़े
इमारतों में लगे शीशे तोड़ना और गाड़ियों के टायरों की हवा निकाल देना
पेड़ों पर बरसाना पत्थर कच्चे फलों के लिए
और काँच की गिलास के भीतर एक कीड़े को क़ैद कर
परखना उस घुटन को जिसे वे नहीं समझते
अध्यापक या अतिथि जब बैठने वाले ही हों
तब ही उनके ठीक नीचे से कुर्सी हटा देना
और अगली बार कुर्सियों पर च्यूंगम या कोई नुकीली चीज़ रखना
ऊँचाइयों पर चढ़कर गुज़रते हुए राहगीरों पर थूकना या कुछ फेंकना
इंकपैनों और प्रकारों से हमले करना समवयस्क और समझदार सहपाठियों पर
करंट और आग से डराना, मारना, चिढ़ाना और ग़लत ढंग से पुकारना
उम्र में छोटे भाइयों और बहनों को
‘उठो लाल अब आँखें खोलो...’ को नज़रअंदाज़ करना और
‘मैया मैं तो चंद्र खिलौना लैहों...’ टाइप ज़िदों से गुँजा देना आसमान
इम्तिहानों में नक़ल और घर में चोरी करना
बड़ों की बुलाहटें अनसुनी करना
और भयंकर शोर मचाना एक काहिल बौद्धिक के कमरे के बाहर
बंद खिड़कियों को खोलकर भाग जाना
और दरवाज़े पर पड़े पर्दे को लपेटकर ख़ुद के इर्द-गिर्द गोल-गोल घूमना देर तक
भिखारियों को छेड़ना और पागलों को डिस्टर्ब करना
खेल कोई भी हो उसमें बेईमानी करना
खेल कोई भी हो उसमें परस्पर चोटिल कर देने वाली कार्रवाइयाँ करना
शतरंज, कैरम, कबड्डी, कंचे, क्रिकेट... खेल कोई भी हो उसे जुए में बदल देना
गंदी गलियों से सीखी गई गालियों के प्रथम प्रयोग बुज़ुर्गों पर करना
और आशय से वंचित होते हुए भी कहना एक चुभती हुई बात सबसे निकटवर्तियों को
और कुछ बड़े होने पर गली में से गुज़रती एक लड़की की छातियाँ नोचकर भाग जाना
और बाद इसके धीरे-धीरे उस सब कुछ के प्रति नफ़रत से भर उठना जो हासिल नहीं है...
वे एक उम्र तक जुर्म क्या है नहीं समझते
और पहले जुर्म की स्मृतियाँ नहीं होतीं...
सरकार के उन पर कई एहसान थे
वे सरकारी अस्पतालों में पैदा हुए
सरकारी स्कूलों में शिक्षा पाई
सरकारी फ़ुटपाथों पर रातें गुज़ारीं
सरकारी परिवहनों में बग़ैर कुछ चुकाए यात्राएँ कीं
सरकारी बाल सुधारग्रहों और जेलों में रहे
सरकारी अदालतों ने उन्हें सुधारने के अनेक प्रयास किए
लेकिन आख़िरकार वे एक सरकारी मौत मरे
सरकारी हरदम असरकारी नहीं होता
लेकिन यहाँ अ-सरकारी भी असरकारी साबित नहीं हुआ
वे उन ‘एनजीओ'स’ को ही बेचकर खा गए
जो उन्हें पुनर्वास और स्वावलंबन के मायने समझाने आए थे
शरारतें जुर्म नहीं होतीं, जुर्म का रियाज़ होती हैं
आहिस्ते-आहिस्ते एक लत एक ज़रूरत बनती हुईं
कई बड़ी नुमाइशों के लिए ख़ुद को मुस्तैद करतीं
सब तरफ़ शरारतें ही तो दिखती हैं इस वक़्त में इतना रक्त बनकर
मानवाकृतियों के घेरे में स्याह और जमी हुई शरारतें...
ये सिलसिले रुक नहीं रहे
और ब्यौरे हैं कि बढ़ते ही जा रहे हैं
बस अब मैं और तफ़सील में नहीं जाऊँगा
- रचनाकार : अविनाश मिश्र
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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