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वस्त्र मेरी देह पर तने तंबू हैं

vastra meri deh par tane tambu hain

रोहिणी अग्रवाल

रोहिणी अग्रवाल

वस्त्र मेरी देह पर तने तंबू हैं

रोहिणी अग्रवाल

वस्त्र

मेरी देह पर तने तंबू हैं

जो मुझे नहीं

मेरे पहरुओं को सुरक्षा देते हैं

मेरे पहरुए–

धुनिए हैं

और हैं रंगरेज़

लाद देते हैं मुझ पर

थान के थान

कपास की उजली कली से

कच्ची नरम मुस्कान छीनकर।

रंगकर

थानों में फैलीं अजगरी लंबाइयाँ

वे नाथ देना चाहते है मुझे

कि करूँ परिक्रमा उनकी

करता है जैसे कोल्हू का बैल।

वे यातना को कहते हैं प्रेम

आवृत्ति को कल्पना

वे ठस्स को आराधते हैं

और सिहरकर

अमूर्त के आप्लावनकारी तरल सौंदर्य से

वहशत के शोर में पनाह पाते हैं

शब्दों को साधक हैं वे

नहीं सुन पाते अनभिव्यक्त रह गए मौन में गुँथे

वाचाल रहस्य।

वे देखते हैं पुतली से अँगुल भर दृश्य

दृश्य की पीठिका में

अनंत समय की डगर फलाँगती

आहटों को सुन नहीं पाते।

हम सदियों पुराने संगी हैं

नज़रबंद मैं

पहरुए वे

आमने-सामने हो रहते हैं दिन-रात

बर्फ़ सी सख़्त अजनबियत लिए

बेचारे पहरुए–

वे केंचुल को समझ मेरा तन

हिफ़ाज़त में लगे रहे

और मैं ललद्यद

ठीक उनकी नज़र के सामने

निकल गई नंगे बदन

प्रिय मुझ-सा हुआ औघड़

जनूनी

जाँबाज़

तलाश लेगा मुझे ख़ुद-ब-ख़ुद

अभी तो मैं व्यस्त हूँ बहुत

पुलका रही हूँ हर राह-घाट

अपनी निर्द्वंद्व पदचाप से

महका रही हूँ हर ज़र्रा हर रोयाँ

मज़बूत इरादों की सुवास से

मेरी टेर की आस में

कान बन गया है ब्रह्माँड

प्रिय के पास रत्ती भर जगह नहीं कहीं

मेरे आगोश के सिवा।

स्रोत :
  • रचनाकार : रोहिणी अग्रवाल
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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