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ऊष्णकटिबंध

ushnakatibandh

जितेंद्र रामप्रकाश

जितेंद्र रामप्रकाश

ऊष्णकटिबंध

जितेंद्र रामप्रकाश

और अधिकजितेंद्र रामप्रकाश

     

    एक

    मानो वह रंगीन पक्षियों से भरे बाज़ार से गुज़र कर आई

    टोकरियों में मछलियाँ
    बोरों में रंगीन मसाले चमकते थे
    धूप में रक्त उफनता था और गंध
    माल लदे जहाज़
    मानो उतरे हो तंग बाज़ार में
    सपेरे और लिपटी हुई बारिशें और ताड़
    छोटी दुकानों के ऊपर मानो
    हरे पत्ते झुकाते नीले आकाश में
    जामुनी, पीले और लाल
    फूलों वाले लहराते कपड़ों में मानो
    उसके भारी अंग थिरकते थे
    पत्तों का मुकुट अंगूर-गुच्छे गले में
    मानो क़बीले की काली राजकुमारी
    वह आई
    यौवन की किसी आदिम रस्म के लिए ओझन के पास

    मानो ओझन ने नौजवान लड़की से पूछा
    ‘तेरे हाथ की बनानी है अँगूठी’
    और हीरे गिने बुलाबी काग़ज़ पर
    हीरों की पारखी वह औरत प्रेमियों के वीर्य से भरी 
    शानदार
    भारी लेकिन मुलायम हाथों से
    उसने नाप लिया लड़की की गोरी उँगली का
    त्वचा कसी थी और नाख़ूनों के नीचे लाल रसाव चमकता था

    दो

    रक्त में कथाओं की तरह घुला हुआ
    यह तुम्हारा दुःख है
    अयस्क-सा।
    दानेदार। रेत में त्वचा पर चमकता

    धूप में निखरे रक्त-सा चमकता
    यह दुःख है या प्रेम
    तीखा और पुराना
    स्वाद भरा। ज्वरग्रस्त

    स्रोत :
    • पुस्तक : साक्षात्कार 196 (पृष्ठ 46)
    • संपादक : ध्रुव शुक्ल
    • रचनाकार : जितेंद्र रामप्रकाश

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