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उर्वर प्रदेश में बंजर कविता

urwar pardesh mein banjar kawita

संजय चतुर्वेदी

संजय चतुर्वेदी

उर्वर प्रदेश में बंजर कविता

संजय चतुर्वेदी

महादेश के काव्यकर्म में

एक सदी का अंत हुआ था

कितनी ध्वनियों वाले युग का

कैसा फीका अंत हुआ था

लेकिन कवियों के शिविरों में

(कवियों के या तिकड़मियों के,

कवि की संज्ञा देते हुए हिचक होती है

आगे जहाँ-जहाँ कवि आए वहाँ-वहाँ संशोधित कर लें)

लेकिन ऐसे ही शिविरों में

सत्तालोलुप कलाकर्म का

जनता को बाहर करने का

कविता को बेघर करने का

हर्ष-निनाद तुमुल कोलाहल

उनके चालू घटाटोप में

कोई भी अवसाद नहीं था

सब कुछ था रोज़ाना जैसा

जैसे ख़ाली हुई बाटली

और दूसरी खोली थी

समय मँझोले कवियों का था

कविता बड़ी मँझोली थी

पैसे की क़ुव्वत के आगे

जननिरपेक्ष कूट संकेतों को जनवाद कहा जाता था

प्रभुओं को ख़ुश रखने वाली कामकला को प्रगति बताना

दुष्चरित्र भाषा को कहना ये तो बहुत बड़ी कविता है

यह सब आज मुख्यधारा थी

सत्य काव्य का सबसे बड़ा छंद होता है

छंद छोड़ सब दंद-फंद में लगे हुए थे

बच्चे-चिड़िया-सपने-औरत-माँ का प्रेमी, बहन का प्रेमी

हुए यहाँ मासूम मुखौटे

ऐसे विषयों ने परिवर्तन की कविता को घेर लिया था

झूठ बोलने का वेतन पाने वाले सब सुकवि हो गाए

ऐसी साँठ-गाँठ के आगे

अब विचार भी था बेचारा

प्रतिष्ठान की चाटुकारिता

जनवादी की बोली थी

काले धन की बंदूक़ों में

प्रगतिशीलता गोली थी

समय मँझोले कवियों का था

कविता बड़ी मँझोली थी।

स्रोत :
  • रचनाकार : संजय चतुर्वेदी
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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