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गिरता हुआ ब्रह्माँड

girta hua brahmanD

प्रशांत रमण रवि

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प्रशांत रमण रवि

गिरता हुआ ब्रह्माँड

प्रशांत रमण रवि

और अधिकप्रशांत रमण रवि

    नदी

    अब नहीं बहती—

    उसकी देह में जम गई है

    चुप्पी की गाद।

    कभी जो गर्जना थी उसकी,

    अब एक विस्मृत ऋचा है—

    देवताओं तक भी

    जिसकी प्रतिध्वनि नहीं पहुँचती।

    जंगल

    पेड़ों ने छोड़ दी है छाया देना—

    वे बन गए हैं

    स्वप्नों की समाधि-शिलाएँ।

    हवा की जगह

    टंगी है कुल्हाड़ी की गंध,

    मानो हर शाख

    किसी अपराध की चुप गवाही हो।

    पहाड़

    अब भी खड़े हैं

    गगन की गोद में—

    पर भीतर से दरक चुके हैं,

    जैसे चुप्पी ओढ़े कोई पुराना संताप

    जिसकी गूँज

    सिर्फ़ पृथ्वी सुनती है,

    मनुष्य नहीं।

    मनुष्य

    छू आया है ऊँचाइयाँ,

    पर जड़ें—

    वहीं की वहीं छूट गईं।

    अब वह चलता है

    बिना पृथ्वी के—

    एक अंतहीन गिरावट में,

    जिसे वह 'प्रगति' कहता है।

    प्रकृति

    क्रोध में है, करुणा में—

    बस एक सूक्ष्म मौन है,

    जिसमें सृष्टि

    टूटकर गिरती जाती है

    अपने ही कण-कण में।

    जैसे ब्रह्माँड—

    अपना सपना भूल गया हो।

    स्रोत :
    • रचनाकार : प्रशांत रमण रवि
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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