बेरोज़गार मित्र की डायरी से
berozgar mitr ki Diary se
नरेन और देवेंद्र के लिए
बहुत चाहता हूँ पूरे कर दूँ
बूढ़े माँ-बाप के सपने
नहीं तो कम से कम उन्हें आश्वस्त कर दूँ
कि उनके मरने के बाद भूखों नहीं मरूँगा।
पर सबसे अधिक सालती है गर कोई बात
तो यह कि वे मुझे
अब भी नालायक़ क्यों नहीं मानते!
अभी तो मैं जवान हूँ
मुझे भी आते हैं सतरंगी सपने
पर जब देखता हूँ
धीरे-धीरे बुझ रही हैं पिता की आँखें
तो मुझे अपने रंगीन सपनों से
वितृष्णा होने लगती है।
यूँ तो रोज़ ही जन्मती-मरती हैं
छोटी-मोटी इच्छाएँ
कि पी लूँ एक कप कॉफ़ी रेस्तराँ में बैठकर
धुला लूँ लॉन्ड्री में कभी रीठ गए कपड़े
बनवा लूँ एक नई कमीज़।
मेरी इच्छाओं की डोर
अब बित्ते से नहीं नापी जा सकती
मैं चाहता हूँ कोई मुझे चाहे
मैं करूँ किसी से दीवानगी की हद तक प्यार।
साथ ही उठते हैं कई-कई सवाल
रेस्तराँ मे एक कप कॉफ़ी का मतलब
समझते हैं आप
और मेरी आँखों में आलू की पीली
तरकारी फैल जाती है
एक उपहास
किसी से दिल लगाने का मतलब
समझते हैं आप!
- पुस्तक : इसी काया में मोक्ष (पृष्ठ 38)
- रचनाकार : दिनेश कुशवाह
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2013
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