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उलझी हुई ज़िंदगी का सबूत

uljhi hui zindagi ka sabut

वंदना गुप्ता

वंदना गुप्ता

उलझी हुई ज़िंदगी का सबूत

वंदना गुप्ता

और अधिकवंदना गुप्ता

    तुम जब भी आओगे

    मेरी उलझी हुई ज़िंदगी का

    सबूत माँगने

    तो काग़ज़ में लिखी दास्तानों से

    नहीं समझ पाओगे

    मेरे जिस्म में सूखती शिराओं का दर्द

    वर्षों से अपने आँगन में

    अकेली करती रही हूँ मैं

    अपनी ही परछाइयों से संवाद

    अपने ही पाँवों की आहट पर

    सुनती रही हूँ मैं, तुम्हारे आने की पदचापें

    कितना मुश्किल होता है

    अपने आप में अकेले होना

    राख़ के ढेर में अरमानों का

    दब जाना

    एकाकी संघर्षों में

    हथेलियों का घिस जाना

    तुम नहीं समझ पाओगे

    मेरी देह में उगी कटीली

    झाड़ियों की मार

    जिसे मैं वर्षों से

    झेल रही हूँ, अपने जिस्म पर

    देखती रही हूँ मैं वर्षों से

    घर लौटते पक्षियों की कतारों में

    तुम्हारे वापस आने की

    उम्मीदों के सपने

    तुम नहीं समझ पाओगे

    सूखे पत्तों सरीखे

    सड़कों पर बिखरे

    मेरे सपनों की पीड़ा

    और मेरी उम्मीदों के

    मर जाने का दर्द भी।

    स्रोत :
    • रचनाकार : वंदना गुप्ता
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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