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उकाबी नज़र

ukabi nazar!!

भगवंत सिंह

भगवंत सिंह

उकाबी नज़र

भगवंत सिंह

और अधिकभगवंत सिंह

    थक गई मेरी उकाबी नज़रें

    तुम्हारे भीतर गहरे उतरते

    शर्मसार थी मेरी लज्जित नज़र

    ज़रूरत में, सत्य बोलने से

    ढककर, मरकर बाँध लगाकर

    टिकाव में, एक-सी

    पलक झपके बग़ैर

    सुई में धागा पिरोने की हालत में

    मगन होकर

    किए यत्न अनेक

    अंततः सोच-परखकर

    नज़र का धोखा लगे

    परिचित जो एक स्तर पर

    दूधिया, काशनी, नीमप्याज़ी

    ख़ूब लाल, नीले, पीले

    ताँबे-सी चमक वाले

    अनेक नमूने रंग तमाशे

    देखे, अनदेखे, देखे-भाले

    थककर, फिसली मेरी उकाबी नज़र

    मानव, अमानव की पहचान में

    एक अवज्ञा से, जो दुख प्राप्त किए

    अधखिले, ये संताप

    अंत मेरे अस्तित्व में मिल गए

    इश्क़ के हसीन ग़म

    मेरी तीखी सूझ महीन नज़र को

    पलक झलक मेले के समान

    अनजान क्षण मुखर

    नश्वर से लगें

    जानूँ, कब कहाँ, विलुप्त हुए

    सूझ सुलक्षण भेंट

    कल्पना में, सोचते

    कितनी रमणीय आकृतियाँ

    जीवित, अथवा मर गईं

    कहाँ ढहीं, कब ढेरी हो गईं

    ईर्ष्यालु दोस्तों के लिए भी, कुछ था

    कभी कहीं मिली, इस जीवन की थाह

    यह लोभी, स्वार्थी समाहित

    बुझ गई खिलखिलाती

    ये टिमटिमाती ज्योतियाँ

    नैन ज्योति, होती हुई

    कई बार धूमिल पड़ी

    बीती चौथाई सदी में

    पाँच बार शीशे बदलकर

    लगाई अनेक फ़्रेमों की ऐनकें

    स्थूल रूप में सही,

    कुछ चारों दिशाओं में

    घटित हुए की ठीक पहचान करने को

    अपने बेगाने की पहचान के लिए

    मुझे लगा यह नेगेटिव

    इनका उल्टा-सीधा

    भीतरी आँख की खिड़की से निकल गया

    आँसुओं के कैमिकल से धुलवाया

    स्पष्ट होगी, सही रूप में, यह अमूल्य तस्वीर

    जीवन—एक मार्ग

    प्रयोगशाला

    नित्य नए लोग, नए प्रयोग

    अंततः मन थकान की ओर अग्रसर

    ढल जाता, खाते रहो, चरते रहो

    उसी एक नाँद में, मुँह ठूँसकर

    ओखली में सिर देकर

    काँपते रहना, कुछ कहना, दूसरों के भय से

    काव्य का सौंदर्य, आकाश में है

    अपना प्रकाश, चमकता नूर

    जिससे धरती फलती-फूलती, विकसित होती

    उकाबी मेरी नज़र, अनेक बार थिरकी

    लेकिन नहीं, थकी हारी

    रंगारंग तमाशे

    ऐसे ही अन्य कुछ और

    ज़्यादा देखने के बहाने

    जाने कहाँ ले जाएँगी

    मुझे ये सुंदरियाँ!

    राह अधूरी नापने पर लगती

    अभी तय हुई,

    अधूरी मंज़िल

    जीने की चाह

    फिर मारकर छींटे ताज़ा जल के

    खोलकर उनींदी आँखें

    कर रखी, मैंने शीशों के अंदर

    कहीं कोई और अणु, परमाणु

    इनसे ही टकराकर

    वाद-विवादी जीवन के

    इतिहास के पन्नों में समा जाए

    चलते-चलते

    हमारी चंचलता को भ्रमित कर दे।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 208)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014

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