तुम्हारी याद के मुहाने पर आकर
अनेक परिदृश्य चलचित्र की तरह चलने लगते हैं
जिनसे अनायास ही एकांत में एकतरफ़ा संवाद करने लगती हूँ
तुमसे दूर जाना हर बार कितना अजीब होता है
और तभी मैं तुम्हारा होना जान पाती हूँ
तुमसे विलग होकर मैं मात्र देह में बदल जाती हूँ
इस अकेली पहाड़ी शाम के धूसर रंगों में तुम्हारे साँवले सौंदर्य का
बिंब उभरने लगता है
बुरांश के चटकीले फूलों में तलाशने लगती हूँ तुम्हारे प्रेम के माने
ग्लेशियर की पिघलती बर्फ़ से फूटते सोतों का निनाद
अंतिम हूक तक सुनती हूँ
प्रेम की आततायी बेला में सोचती हूँ कि
सभ्यता के किस हिस्से के कितने
योजन को पार कर हम मिले
देह नहीं,
मन की प्रदीप्ति को बाँचने की कला में
प्रवीण हो तुम
तुम अक्सर माप लेते हो
अपने प्रेम के तराज़ू में मेरा भारी होता मन
तुम्हारे रोशन चेहरे में देख लेती हूँ
मैं चंद्रमा की आठों कलाएँ
और हम पकड़ लेते हैं एक-दूसरे की आँखों में
उदासियों के तरल बिंदु
तुम्हारे बग़ैर मैं बिल्कुल ख़ामोश हो जाती हूँ
स्मृतियों की भित्तियों में बिलख उठती हूँ
मेरे प्रियतम
तो अब समझ लेना चाहिए कि
इस धरती पर अभी भी
प्रेम के प्रस्फुटन के गीत गाए जा सकते हैं
इससे पहले कि कोई अवसादी चट्टान विछोह का
ज्वालामुखी बन लावा-सी फूट पड़े
और विस्थापित कर दे
किसी रची-बसी सभ्यता की जड़ों को
हम लौट आएँ एक-दूसरे के पास
कि ये पृथ्वी बची रहे हमारे प्रेम की आधारशिला से
हमारे प्रेम की लयबद्ध प्रतिबद्धता जीवित रखेगी
प्रेम के पक्ष में गाए जाने वाले यशोगान
रात्रि के किन्ही एकांत पलों में चेतना के उजास में
स्वप्नों को बोने के क्रम में
हम भविष्य के प्रतिगामी सुखद संसार का प्रतीक बन जाएँ
गर हमारे प्रेम में आसक्त हो
ऋतुएँ अपनी लय में परवर्तित होती रहें
धरती सूर्य के चारों ओर सिंदूरी आभा लिए फेरे लेती रहे
तो समझो प्रिय कि हमारा प्रेम प्रतीक है जीवन का!
- रचनाकार : शालिनी सिंह
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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