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तुमने जीवन तो लिया लेकिन...

tumne jiwan to liya lekin

अनुवाद : खड़कराज गिरी

वीरभद्र कार्कीढोली

वीरभद्र कार्कीढोली

तुमने जीवन तो लिया लेकिन...

वीरभद्र कार्कीढोली

और अधिकवीरभद्र कार्कीढोली

    जिसको मैंने अस्तित्व दिया

    उसने ही घायल किया—

    कई-कई बार मुझे।

    गिरते समय सहारा बनकर

    कंधों से उठाया जिसको

    उसने ही कोशिश की—गिराने की,

    कई-कई बार मुझे।

    'मैं नितान्त अकेला हूँ' कहते हुए

    जो उम्मीद से मेरे पास आया

    उसी क्षण मेरे दिल का दरवाजा

    पूरी तरह खुल पाया—

    आज वही आँखें फेरकर

    अनदेखा किया

    कई-कई बार मुझे।

    हे भगवान्, मैं ही सचमुच कितना कृतघ्न हूँ!

    अमावस्या के गहरे पाताली अँधेरे में

    डूबा था वह अकेला-अनजान

    हाथ बढ़ाया अपनेपन का

    पूर्ण किया स्नेह ज्योति से—

    और आज वही षड्यंत्रों से

    उन्हीं पाताली अँधेरों में

    अस्तित्व मिटाकर मेरा ही

    ख़त्म करने की कोशिश की

    जाने क्यों हर बार मुझे।

    सचमुच भगवान, मैं ही कितना दोषी हूँ!

    हे प्रभु, यह कैसा रणक्षेत्र

    जहाँ मैं अकेला—

    नितांत अकेला जूझता हुआ

    यह कैसा जीवन युद्ध है?

    कभी भर देते हो

    तुम ही अदम्य साहस से

    पूर्णता देते हो

    मंत्राभिसिक्त शस्त्रों से

    तो कभी स्वयं तुम ही

    मुझको ही कर देते पूर्णतः

    शिथिल...विवश...क्लांत!

    जीतता हुआ सा मैं

    पराजित हो जाता हूँ—

    तुम्हारी ही बाधा से बाधित होकर।

    मैं अवाक्...आश्चर्यचकित प्रभु!

    इस अनबुझे-दिग्भ्रमित सत्य से—

    जाने कब से—युगों-युगों से।

    जीवन-समर में...अंतहीन संघर्ष में,

    अकेले ही उतारा गया मैं,

    (अकेला ही उतारा गया मुझको)

    अनवरत-युद्धरत—

    सब कुछ देकर भी नहीं दिया

    प्रभु! एक बार, किंचित् एक बार भी

    युद्ध-अंत का विजय मंत्र

    देखो भगवन्, देखो—

    इस रणक्षेत्र में, जीवन संघर्ष में

    मुझे कहा गया—झुको, करो आत्मसमर्पण

    स्वीकारो—अपने दोषों को, पापों को।

    मैं कैसे मान लूँ प्रभु,

    वे पाप, वे दोष, जो मेरे हैं—

    कभी किए मैंने?

    कैसे झुकाऊँ अपने सिर को

    अनसुना कर दूँ अन्तःकरण में गुंजित

    अपने स्वाभिमान के स्वर को?

    यह अन्याय क्यों-अतिचार क्यों?

    सच कहूँ तो, हे प्रभु!

    तुमने जीवन तो दिया—जीने की शैली नहीं दी,

    सिर्फ़ जीवन ही दिया

    वंचित रखा भाग्य से,

    साहस दिया संघर्ष का

    वंचित विजय मंत्र दिये

    पराजय की बाधा भी।

    मैं भ्रमित हूँ प्रभु!

    यह कैसा युद्ध है? कैसा संघर्ष है??

    अकेला...अनवरत...युद्धरत—

    फिर तुम ही...मेरे शीश पर हाथ रखते हो

    मुझसे ही कहते हो—

    तुम पूर्णत: सक्षम...भद्र हो, वीर हो,

    तुम सहनशील हो...तुम धैर्यवान हो,

    मुझको ही कहते हो प्रभु—

    बस, तुम ही भाग्वायन् हो!

    स्रोत :
    • पुस्तक : इस शहर में तुम्हें याद कर (पृष्ठ 43)
    • रचनाकार : वीरभद्र कार्कीढोली
    • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
    • संस्करण : 2016
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

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    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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