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तू स्पंदन है मेंरे उर का...

tu spandan hai mere ur ka. . .

ज्ञानराज माणिकप्रभु

ज्ञानराज माणिकप्रभु

तू स्पंदन है मेंरे उर का...

ज्ञानराज माणिकप्रभु

तू स्पंदन है मेंरे उर का, तू श्वासों का अनुगुंजन है।

आलंबन है तू जीवन का, मैं सीता तू रघुनंदन है॥

जड काया को निज माया से, तू कर देता चलता-फिरता।

फिर बैठ स्वयं इस तन में तू, देता उसको निज चेतनता।

भवबंधन में तू ही तो है, तू अपना ही भवभंजन है॥

इन प्राणों को प्राणित करने की केवल है तुझमें क्षमता।

तू स्वयं अहंता है मेरी तू बन जाता मेरी ममता।

मैं चंदन हूँ तू गंध प्रभो, अपना यह चिर गठबंधन है॥

निर्बुद्ध बुद्धि भी पाती है, तुझसे ही अपनी चिन्मयता।

चंचलता मन की तुझसे है, तुझसे ही मन की तन्मयता।

मैं कंकण हूँ, कुंडल हूँ, औ' तू शुद्ध अमिश्रित कंचन है॥

यह दृष्टि जिधर भी जाती है, आती संमुख प्रभु की प्रभुता।

है 'ज्ञान' सृष्टि के कण-कण में, प्रभु की सत्ता औ' व्यापकता।

मैं चुंबन हूँ श्रीचरणों का, तू दृढ़तर दृढ़ आलिंगन है॥

स्रोत :
  • रचनाकार : ज्ञानराज माणिकप्रभु
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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