मेरा आकाश छोटा हो गया है
मुझे नींद नहीं आती
कहाँ हो तुम?
इस विस्तृत परिवार के धड़कते सदस्यो!
मैं तुम्हें आवाज़ देता हूँ
मेरा आकाश छोटा हो गया है मुझे नींद नहीं आती।
यह मेरे माथे पर
जो चोट का निशान है
यह मेरी माँ के घायल मन की पहचान है
बर्फ़ का कंबल लपेटे
इस पेचदार खाई में
मैं टूटे पंख-सा भटकता हूँ
नीचे अनय की कीचड़ है,
शीश पर बर्बर इतिहास की ओछी चट्टान है,
कहाँ हो तुम?
इस भरे-पूरे उद्यान में महकते वृक्षो!
क्या सचमुच मेरा स्वर
तुम तक पहुँचता है?
मैं तुम्हें आवाज़ देता हूँ
मेरा आकाश छोटा हो गया है
मुझे नींद नहीं आती।
तुम, जिनकी आँखों से शंक्वाकार रोशनी निकलती है
तुम, हवा जिनसे दो क़दम पीछे चलती है
तुम, जो धरती से ऊपर, कुछ ऊपर रहते हो
तुम, जो तरुणाई के चौड़े राजमार्ग पर चक्राकार बहते हो?
तुम, जिनसे पूर्व सूर्य कभी नहीं डूबता
तुम, जिनसे जीवन कभी नहीं ऊबता
पार्क की बेंचों, सड़कों, फ़ुटपाथों पर
क्लबों, नृत्यघरों या समुद्री तटों पर
जहाँ कहीं हो तुम—
मैं तुम्हें आवाज़ देता हूँ—
मेरा आकाश छोटा हो गया है—मुझे नींद नहीं आती
कालिदास के श्लोक और
नानक की वाणी
ग़ालिब की ग़ज़लों
सोहनी-महिवाल की कहानी
सूर के पद और शंकर के दर्शन
ढोला-मारू और रवींद्र के गुंजन
इन सबकी रक्षा के लिए
मैं तुम्हें आवाज़ देता हूँ—
सुनो—
अविवाहित रह जाने दो बहनों को
अंधी हो जाने दो राधा को
सुनो सुनो
यह सब कल के लिए छोड़ दो
आज तो बस युद्ध को
नहीं नहीं ‘आवश्यक बुराई’ को
नीचे से ऊपर तक ओढ़ लो
कहाँ हो तुम इस विस्तृत परिवार के धड़कते सदस्यो!
मैं तुम्हें आवाज़ देता हूँ
मेरा आकाश छोटा हो गया है
मुझे नींद नहीं आती।
कहाँ हो तुम इस भरे-पूरे उद्यान के महकते वृक्षो!
मैं तुम्हें दुबारा आवाज़ नहीं दूँगा
मेरा आकाश छोटा हो गया है।
मुझे नींद नहीं आती।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 13)
- रचनाकार : कैलाश वाजपेयी
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 1988
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