हम पेड़ को कुछ भी कह सकते हैं
hum peD ko kuch bhi kah sakte hain
यह पेड़ मेरी कोशिश नहीं है
इसके भीतर से उभरती कुर्सी
तहज़ीब की आँखें हैं
और मेरा कुर्सी से उठकर इस पेड़ के बारे में फ़तवा देना
एक पेशा है
पेड़ है, इसकी डगालें भी हैं
डगालों से उभरती पत्तियाँ हैं, फूल हैं
और पेड़ का अपना शामियाना है
छाँव है
छाँव में हम-तुम बैठते हैं
और हमारी कोशिश
हमारे ऊपर का पेड़ हो जाती है
आसमान पता नहीं किस आसमानी कोशिश से
हम पर कभी-कभी ज़ुल्म करता है
ज़ुल्मी आसमान के मुक़ाबले
पेड़ हमारी कामयाबी हो जाता है
और लोगों को उनकी कुर्सियों में छोड़कर
हम पेड़ को कुछ भी कह सकते हैं
दरख़्त या झाड़ या वृक्ष।
- पुस्तक : प्रतिनिधि कविताएँ (पृष्ठ 25)
- रचनाकार : सुदीप बॅनर्जी
- प्रकाशन : मेधा बुक्स
- संस्करण : 2005
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