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ट्रेन

tren

अनुवाद : लक्ष्मीधर मालवीय

भीड़ भरी ट्रेन में चढ़ना है मुझे नापसंद

गर्दन पर पड़ती है बग़ल में खड़े हुए आदमी की साँस

मन करता है ढकेलकर कर दूँ दूर उसको

यह नहीं तो बन जाऊँ एकदम उसका दोस्त

बदन से इतना बदन सटा कर खड़ा है

बस इतना साहस हो अगर कि नज़र उसकी ओर उठा सकूँ

ज़्यादा नहीं राम-राम तो करना चाहता हूँ

वह दूसरी ओर मुँह किए है खड़ा

भगवान जाने क्या बिसूर रहा है

किसी से भी नहीं मिलता उसका चेहरा

पर हर किसी की-सी है उसकी नाक हर किसी का-सा होंठ

ले रहा है उसी मुँह नाक से साँस

अजान आदमी की उगली हुई साँस में ले रहा हूँ मैं साँस

एक हो जाती है ट्रेन भर की सवारियों की साँसें

कॉफ़ी की साँस दाल की अचार की साँस

एक सौ साल बीते नहीं रह जाएँगे ये सब

भीड़ भरी ट्रेन में चढ़ना है मुझे नापसंद

नापसंद है इसीलिए पसंद

स्रोत :
  • पुस्तक : सूखी नदी पर ख़ाली नाव (पृष्ठ 56)
  • संपादक : वंशी माहेश्वरी
  • रचनाकार : शुन्तारो तानीकावा
  • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
  • संस्करण : 2020

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