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माँ की डिग्रियाँ

man ki degreeyan

अशोक कुमार पांडेय

अशोक कुमार पांडेय

माँ की डिग्रियाँ

अशोक कुमार पांडेय

घर के सबसे उपेक्षित कोने में

बरसों पुराना जंग खाया बक्सा है एक

जिसमें तमाम इतिहास बन चुकी चीज़ों के साथ

मथढक्की की साड़ी के नीचे

पैंतीस सालों से दबा पड़ा है

माँ की डिग्रियों का एक पुलिंदा

बचपन में अक्सर देखा है माँ को

दुपहर के दुर्लभ एकांत में

बतियाते बक्से से

किसी पुरानी सखी की तरह

मरे हुए चूहे-सी एक ओर कर देतीं

वह चटख पीली लेकिन उदास साड़ी

और फिर हमारे ज्वरग्रस्त माथों-सा

देर तक सहलाती रहतीं वह पुलिंदा

कभी क्रोध कभी खीझ

और कभी हताश रुदन के बीच

टुकड़े-टुकड़े सुनी बातों को जोड़कर

धीरे-धीरे बुनी मैंने साड़ी की कहानी

कि कैसे ठीक उस रस्म के पहले

घंटों चीख़ते रहे थे बाबा

और नाना बस खड़े रह गए थे हाथ जोड़कर

माँ ने पहली बार देखे थे उन आँखों में आँसू

और फिर रोती रही थीं बरसों

अक्सर कहतीं

यही पहनाकर भेजना चिता पर

और पिता बस मुस्कुराकर रह जाते...

डिग्रियों के बारे में तो

चुप ही रहीं माँ

बस एक उकताई-सी मुस्कुराहट पसर जाती आँखों में

जब पिता किसी नए मेहमान के सामने दुहराते

‘उस ज़माने की एम.ए. हैं साहब

चाहतीं तो कॉलेज में होतीं किसी

हमने तो रोका नहीं कभी

पर घर और बच्चे रहे इनकी पहली प्राथमिकता

इन्हीं के बदौलत तो है यह सब कुछ’

बहुत बाद में बताया नानी ने

कि सिर्फ़ कई रातों की नींद नहीं थी उनकी क़ीमत

अनेक छोटी-बड़ी लड़ाइयाँ

दफ़्न थीं उन पुराने काग़ज़ों में...

आठवीं के बाद नहीं था आस-पास कोई स्कूल

और पूरा गाँव एकजुट था शहर भेजे जाने के ख़िलाफ़

उनके दादा ने तो त्याग ही दिया था अन्न-जल

पर निरक्षर नानी अड़ गई थीं चट्टान-सी

और झुकना पड़ा था नाना को पहली बार

अन्न-जल तो ख़ैर कितने दिन त्यागते

पर गाँव की उस पहली ग्रेज़ुएट का

फिर मुँह तक नहीं देखा दादा ने

डिग्रियों से याद आया

ननिहाल की बैठक में टँगा

वह धूल-धूसरित चित्र

जिसमें काली टोपी लगाए लंबे से चोग़े में

बेटन-सी थामे हुए डिग्री

माँ जैसी शक्लो-सूरत वाली

एक लड़की मुस्कुराती रहती है

माँ के चेहरे पर तो

कभी नहीं देखी वह अलमस्त मुस्कान

कॉलेज के चहचहाते लेक्चर थिएटर में

तमाम हमउम्रों के बीच कैसी लगती होगी वह लड़की?

क्या सोचती होगी

रात के तीसरे पहर

इतिहास के पन्ने पलटते हुए?

क्या उसके आने के भी ठीक पहले तक

कॉलेज की चहारदीवारी पर बैठा

कोई करता होगा इंतज़ार?

(जैसे मैं करता था तुम्हारा)

क्या उसकी किताबों में भी

कोई रख जाता होगा

सपनों का महकता गुलाब?

परिणामों के ठीक पहले वाली रात

क्या हमारी ही तरह धड़कता होगा उसका दिल?

और अगली रात

पंख लगाए डिग्रियों के उड़ता होगा उन्मुक्त...

जबकि तमाम दूसरी लड़कियों की तरह

एहसास होगा ही उसे

अपनी उम्र के साथ गहराती जा रही पिता की चिंताओं का

तो क्या परीक्षा के बाद क़िताबों के साथ

ख़ुद ही समेटने लगी होगी स्वप्न?

या सचमुच इतनी सम्मोहक होती है

मंगलसूत्र की चमक और सोहर की खनक

कि आँखों में जगह ही बचे किसी अन्य दृश्य के लिए?

पूछ तो नहीं सका कभी

पर प्रेम के एक भरपूर दशक के बाद

इतना तो समझ सकता हूँ

कि उस चटख पीली लेकिन उदास साड़ी के नीचे

दब जाने के लिए नहीं थीं उस लड़की की डिग्रियाँ।

स्रोत :
  • रचनाकार : अशोक कुमार पांडेय
  • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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