अब्दुल बिस्मिल्लाह की कविता 'हमारे गाँव में' पढ़ने के बाद
हमारे गाँव में भी
कुछ हरि होते हैं
कुछ जन होते हैं
जो हरि होते हैं
वह जन के साथ
न उठते हैं
न बैठते हैं
न खाते हैं
न पीते हैं
यहाँ तक कि जन की
परछाईं तक से परहेज़ करते हैं
यदि कोई प्यासा जन
भूल या मजबूरी बस
हरि कुएँ की जगत पर
पाँव भी रख दे
तो कुएँ का पानी
मूत में बदल जाता है।
हमारे गाँव में
जो जन होते हैं
वे जूता बनाते हैं
कपड़ा बुनते हैं
मैला उठाते हैं
जो हरि होते हैं
जूता पहनते हैं
कपड़ा पहनते हैं
शास्त्र बाँचते हैं
दुर्गंध पौंकते हैं।
इसके अलावा हरि हवेली की
लिसाई-पुताई,
गली-कूँचे की सफ़ाई
चौका-बरतन
बालों की कटाई
कपड़ों की धुलाई
जन ही करते हैं।
और कुछ, उसके मीलों पसरे खेतों की
जुताई, बुवाई, गहाई कर
हरि खत्ती को
धन-धान्य से भरते हैं।
ख़ुद नंगे पाँव
नंगे बदन
कच्ची दीवार टँगी
फूसिया छतों में
पत्थर पेट बाँध सोते हैं।
हमारे गाँव में नम्रता
जन की ख़ास पहचान है
और उद्दंडता हरि का बाँकपन
तभी तो वह—बोहरे का लौंडा
जो ढंग से नाड़ा भी नहीं खोल पाता
को दूर से ही आता देख
मेरा बाबा
‘कुँवरजू पाँव लागू’ कहता है
और वह अशिष्ट
अपना हर सवाल
तू से शुरू करता है
तू पर ही ख़त्म करता है।
इसका मतलब
यह हरगिज़ नहीं कि—
जन को ग़ुस्सा नहीं आता है।
आता है बहुत-बहुत आता है
लेकिन अफ़सोस! यह ग़ुस्सा
साँपिन बन अपनों को ही खाता है।
जब हरि की साज़िश से
दूसरी पाँति का जन, ताल ठोंक
मैदान में उतर आता है।
लेकिन भैया!
पेट की मार
सयानी उँगलियों की बँटवार—
को जन क्या?
दुधमुँहा जानवर भी भाँप जाता है।
ऊपर से दादा की
झुकी कमर ने बताया कि—
बेगार चाहे चिलम थमा कर ली जाए
या लाठी दिखा कर
दोनों में बुनियादी फ़र्क़ नहीं है।
आपने जो—
ओझाई की बात कही है
सो हमारे गाँव पर भी
सौ फ़ीसदी रही है।
यह ससुरी ओझाई ही तो है
जिसके कारन जन आज भी
उस खूँटे से बँधा है
जिसका एक पाँव
शैतान की आँत में
दूसरा पाँव—
धरती की काँख में धँसा है।
वह खूँटा वनराज है
हमारे गाँव के खेत
खलिहान और हाट में
बस उसी की सत्ता चलती है
देश की पंचायत घर
उसी की तर्जनी पर टँगा है।
और गाँव के दगड़े में
कछुआ-सी रेंगती
बोझा गाड़ी की धुरी में
वह खूँटा ही धँसा है
जिसे जन खींचता है
लथपथ पसीने में
माथा ठोक रोज़-रोज़
भैंसे-सा हाँफता है।
वह अव्वल दर्जे का
बहुरूपिया है
अपने दुर्ग को बचाने हेतु
कहीं रामनामी ओढ़
कीर्तन गाता है
कहीं गिरजा की सीढ़ी से
रास्ता मोक्ष का दिखाता है
कहीं गुरू तख़्त से
‘सत श्री अकाल’ का नारा लगाता
कहीं मस्जिद में सूअर
मंदिर में गोकशी करा
जन-जन के हाथों में
गड़ाँसे थमाता है
कहीं जन कल्यान का
ख़ूबसूरत अंगरखा पहन
झोंपड़पट्टी के अँधेरों में
सपने उगाता है।
हरामख़ोर!
विश्व को कपोत घर
बनाने की बात करता है
ख़ुद बंजी
हथियारों की करता है
और आज़ादी तक जाने वाले
हर रास्ते पर
बबूल वन बोता है
- पुस्तक : दलित निर्वाचित कविताएँ (पृष्ठ 44)
- संपादक : कँवल भारती
- रचनाकार : मलखान सिंह
- प्रकाशन : इतिहासबोध प्रकाशन
- संस्करण : 2006
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