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कुछ भली इच्छाएँ थीं

kuch bhali ichhayen theen

सोमप्रभ

सोमप्रभ

कुछ भली इच्छाएँ थीं

सोमप्रभ

और अधिकसोमप्रभ

    कुछ भली इच्छाएँ थीं

    और छोटी-छोटी मेरी चिंताएँ

    उनकी अनदेखी थी

    और सार्वजनिक उपहास

    मुझे इस तरह कई दिनों में बताया गई

    मेरी हैसियत

    मैंने ख़ुद से कहा—

    तुम हद दर्जे के मूर्ख हो। दुनिया बदल चुकी है। विनम्रता के पीछे परदे टँगे हैं। संकीर्णताएँ राजमार्ग की तरह चौड़ी हो चुकी हैं। शालीनता महज़ एक कपड़ा है। तुम्हारी चिंताओं और मदद की ज़रूरत किसे है। सब कर्पूर की तरह उड़ गया है। शेष क्या है। सब अपने सुख से सुखी हैं। भाषा में भेजी गई भावनाएँ खाद के गड्ढे में जा गिरेंगी या भुला दी जाएँगी।

    मैंने इसे स्वीकार किया और ख़ुद से कहा—

    मैं हद दर्जे का मूर्ख हूँ

    फिर मैंने अपनी सभी सदिच्छाओं को खूँटी पर टाँग दिया

    फिर मैंने सुंदर कल्पनाओं और सपनों को काग़ज़ की तरह मोड़ कर जेब में रख लिया

    निरर्थक हो गई तमाम चीज़ें मैंने बुरे वक़्त के लिए जाने क्या सोच कर जेब के भीतर रख लिया

    'सच है कि टटपुंजिया चीज़ों की ज़रूरत किसे है'

    फिर मैंने अपनी परिस्थितियों की ओर देखा

    और पाया कि सबसे पहले मुझे ख़ुद की मदद की ज़रूरत है

    मैंने अपना हाथ बढ़ाया

    जिसे मैंने थाम लिया।

    फिर मैंने चुप्पी साध ली

    और पाया कि कइयों ने चुप्पी साध ली

    हमने दुनिया के लोगों की ओर देखा

    बेहद सनसनीख़ेज़ नाटक हर तरफ़ चल रहा था

    खलकथाओं में मनुष्यता के कपड़े पहने

    हिंस्र पात्र बुद्ध, कबीर, गांधी की भाषा बोल रहे थे।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सोमप्रभ
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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