शैलपुत्री
तुम्हारा स्मरण संकल्प का स्मरण है—
अनामंत्रण के प्रस्ताव और उसके प्रभाव का स्मरण
तुम्हारा स्मरण उस आलोचना का स्मरण है
जिसमें एक भी उद्धरण नहीं
रचना और पुनर्रचना के लिए
अपमान और व्यथा की अनिवार्यता का
स्मरण करता हूँ मैं
स्मरण करता हूँ
एकांत और बहिर्गमन के पार
ले चलने वाले विवेक का
मैं चाहता हूँ
एक असमाप्त स्मरण
चाहता हूँ
अनतिक्रमणीय चरण
चिरदरिद्र मैं माँगता हूँ
तुम्हारी शरण!
ब्रह्मचारिणी
तप का एक अखंड कांड हो तुम—
देह की सामर्थ्य का सफल अनुशासन
विध्वंस जब अस्तित्व पर व्योम-सा सवार है
तुम मनोकामना का रोमांच हो
तुम्हारे तप
तुम्हारे अनुशासन
तुम्हारे रोमांच से अपरिचित
नागरिकों की देह नहीं जानती सामर्थ्य
वह जानती है बस—
सारी गिनतियों से बाहर छूट जाना
वे उपवास में हैं
वे विलाप में हैं
मनोकामना के लिए तप में नहीं
ताप में हैं
तप करो माँ, परंतु
तप से नागरिक-शोक हरो माँ!
चंद्रघंटा
ध्वनियाँ गूँजती हैं,
पुकारती हैं—
गूँजती हैं—दसों दिशाओं में—
पुकारती हैं—ध्वनियाँ
ध्वनियों से संकट को परास्त करने की
युक्ति लेकर आए हैं आततायी—
इस नवयुग में
व्याधि और भय के प्रसार में
क्या यह तुम्हारे ही चरित्र,
तुम्हारी ही प्रेरणा से संभव है
एक ही स्थापत्य में
कोई भवन देखता है कोई खँडहर
सत्यासत्य का भेद
दृष्टि-निर्भर है
दुरभिसंधियों की विचित्र दुर्गंध में
दया जया!
कूष्माण्डा
सृष्टि संभव हुई है तुम से
आदिकवयित्री हो तुम
तब जब तम ही तम था
तुम प्रकाशित थीं
अब जब इतना प्रकाशन है
प्रकाशित होते ही मरण है
तब कहाँ कौन-से तम में
किस सृष्टि के लिए
कैसे सृजन के लिए
हँस रही हो तुम
क्या जन उसी तरह मरेंगे
जैसे वे जीवित हैं
या बचेंगे
तुम्हारी अष्टभुजाओं से
कृपा
आदिस्वरूपा!
स्कंदमाता
विपत्ति तथा मूर्खता में
एक साथ फँस चुका है समय
दोष और दायित्व दूसरों पर
मढ़ देने का समय है यह
शत्रु तो बहुत दूर है
मित्र ही शत्रु हुए जाते हैं
हृदय अवसाद से भर चुका है
समीप सड़न से
शासन पतन से—
धर्म को नष्ट कर रहा है वह
मुझे अपनी मूढ़ता में मग्न रहने दो देवि,
तथ्यों और सूचनाओं का निषेध करने दो
ज्ञान नहीं है वह
ज्ञान की तरह प्रस्तुत है बस
मुझसे पूर्व भी जान चुके हैं कवि—
कुलीनता की हिंसा!
कात्यायनी
तुम्हारा स्मरण अत्यंत कल्याणकारी है,
लेकिन तुम स्वयं विघ्नों से घिरी हुई हो
मैं तुम्हें तब से जानता हूँ
जब तुम्हारे पास अपना कोई घोषणापत्र नहीं था
मुक्ति के लिए तुम्हारा संघर्ष
विचारपूर्ण प्रस्तावनाओं से युक्त था
वे लाल आवरण वाले उस घोषणापत्र से ली गई थीं
जो आने वाली बारिशों में काले नमक के रंग का हो गया
जिसे सांध्यकालीन बैठकों में शराब के साथ सलाद पर बुरका गया
बेतरह धुएँ से भरी इन बैठकों ने सब कुछ धुँधला कर दिया
तुम उनमें से नहीं हो
जिन्हें जब कुछ मिलता है, तब वे ठुकराते हैं
तुम ठोकर लगाओगी;
यह जानकर चीज़ें तुम तक आईं ही नहीं
तुम देर से आईं,
और जल्द पहचानी गईं!
कालरात्रि
ध्यान करता हूँ,
तुम्हारा ध्यान करता हूँ
तुम्हारी अनूठी कालिमा,
तुम्हारे मुक्त केशों का ध्यान करता हूँ
तुम्हारी चमकती आँखों का
ध्यान करता हूँ बार-बार
तुम्हारे तने हुए स्तनों का
जिनसे पाया आश्रय और आहार
ध्यान करता हूँ तुम्हारी सारी मुद्राओं का
जिनसे पाया निर्भय व्यवहार
ध्यान करता हूँ
तुम्हारा ध्यान करना
तुम्हारा ध्यान न करना
आपदा को आमंत्रित करना है
तुम्हें भूल गया,
इसलिए तुम्हारा ध्यान करता हूँ!
महागौरी
संकट सुदीर्घ हो या संकीर्ण,
एक रचनाकार प्रथमतः सौंदर्य-साधक होता है
संकट में सौंदर्य का अन्वेषण,
रचना की भौतिकी है
सब कुछ सौंदर्य है
क्लेश कुछ नहीं
कष्ट का कोई अर्थ नहीं
यह दुःख व्यर्थ है
केवल कोलाहल है,
अगर रूपांतरित न हो सके सौंदर्य में
हे महाशक्ति,
क्या तुम उनकी दीनता देख नहीं सकतीं
जिन्होंने जानी ही नहीं सुंदरता—
सदियों से वंचित
उन्हें वर दो,
सुंदर कर दो!
सिद्धिदात्री
जब सारी कविताएँ हो चुकीं
तब भी शेष है एक कविता
उसे भी कोई कहेगा
कि उसका अनुकरण हो सके
इस प्रकार कविता होती रहेगी
और अनुकरण भी
और सारी कविताओं का हो चुकना भी
और एक कविता का शेष रहना भी
जिसे जब कोई नहीं रचेगा अम्बिके,
तब उसे रचूँगा मैं
यह सिद्धि दो मुझे
उसका अनुकरण कर सकूँ
कि उसका अनुकरण हो सके
अनिवार्य है यह कार्यभार
मैं संशय से न देखूँ कविता को
कि कविता संशय से देखे संसार को!
- रचनाकार : अविनाश मिश्र
- प्रकाशन : समालोचन
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