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जो शहर कहीं था ही नहीं

jo shahr kahin tha hi nahin

वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल

जो शहर कहीं था ही नहीं

वीरेन डंगवाल

और अधिकवीरेन डंगवाल

     

    एक

    कहीं नहीं था वह शहर
    जहाँ मैं रहा कई बरस जाना प्रेम,
    अतीव सुंदर
    उस कहीं नहीं शहर में।
    यों लगता था ख़ाली
    गो कि मकान थे बहुत
    जमी हुई खपरैलों वाले विशाल ‘मकानात’
    और उनमें लोग भी रहते होंगे।
    मुहल्ले-भरपूर-बूढ़े। क्या ही सजीले पान। मिठाई की दुकानें।
    एक से एक बढ़कर। सूरमा मच्छर।
    मेला साल में एक बार ज़बरदस्त।
    उस तरफ़ पेड़ भी बहुत से। झाड़, मेहँदी के।
    जलपक्षी।
    कभी कोई भटकते चले आते आबादी तक—‘समुद्री कौए’।

    गर्मी की सूनी लपक-लू सड़क पर
    चलता चला जाता रिक्शा पालदार नाव की तरह मद्धम
    खिंचता मगर
    एक आदमी के प्राणों से।
    इन्हीं सबके बीच पाया था मैंने तुम्हें
    उस शहर में
    जो कहीं था ही नहीं।

    दो

    तभी मैंने जानी
    नमक के स्वाद की दिव्यता।
    तभी मैंने जाना
    स्वप्न दरअसल नींद में आते हैं, तो मजबूरी में।
    तभी मैंने जाना
    कुछ पाए बग़ैर भी मुमकिन है सुख।
    तभी मैंने जाना
    हम जैसों के लिए भी बनी है पृथ्वी।

    तीन

    कबूतर ढेर सारे
    गुंबदों की ढलानों पर भी, इत्मीनान से
    उनमें कई सफ़ेद, चितकबरे भी
    घर का मोह छोड़ आए दिलेर।
    जैसे उदासी में जबरन घुसी ठिठोली।
    चीलें तो ख़ैर वयस्त रहतीं, आसमान में
    अपना अहिस्ता फ़ुटबॉल खेलने में
    लिहाज़ा इन्हीं कबूतरों के सुपुर्द थी उस शहर की
    चौकसी
    ग़नीमत थी कि
    वह कहीं था ही नहीं।

    चार

    ‘मेहनत’—हाँ ज़रूरी है 
    गुज़ारा कहाँ इसके बग़ैर।
    मगर ‘मेहनतकश’—बिल्कुल नहीं 
    कहीं नहीं शहर में निषिद्ध है यह शब्द।

    पाँच

    दो सौ कमरों की इमारत
    चार सौ खिड़कियाँ
    घूरती बाहर अँधेरे को
    ज्वर-जलित निगाहों से।
    बाहर अँधेरे को झाड़ता नीम शाँय-शाँय
    घोलता
    रात्रि की शीतलता में
    अपनी पकी पीली निमोलियों की
    आयुर्वेदिक सुगंध।
    सो जाओ बच्चो, रात बहुत हो चली
    अभी दिन है परीक्षाओं में।
    या फिर फूट ही पड़ो एक समवेत गान में
    खील-खील करते यह अंधकार।
    शामिल होऊँ मैं भी, अधेड़।

    छह

    उल्लसित
    कोई भी हो सकता है
    रात जैसी चीज़ तक
    जो असल में कोई चीज़ तो हरगिज़ नहीं।
    ऐसी फ़रेबसंभवा है भाषा
    मगर एक क़दम रखना भी मुमकिन नहीं उसके बग़ैर
    वहाँ उस कहीं नहीं शहर में।

    स्रोत :
    • पुस्तक : कविता वीरेन (पृष्ठ 190)
    • रचनाकार : वीरेन डंगवाल
    • प्रकाशन : नवारुण
    • संस्करण : 2018

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