कानपूर
kanpur
केदारनाथ सिंह और पंकज चतुर्वेदी के लिए
एक
प्रेम तुझे छोड़ेगा नहीं।
वह तुझे ख़ुश और तबाह करेगा।
सातवीं मंज़िल की बालकनी से देखता हूँ
नीचे आम के धूल सने पोढ़े पेड़ पर
उतरा है गमकता हुआ वसंत किंचित शर्माता।
बड़े-बड़े बैंजनी—
पीले-लाल-सफ़ेद डहेलिया
फूलने लगे हैं छोटे-छोटे गमलों में भी।
निर्जन दसवीं मंज़िल की मुँडेर पर
मधुमक्खियों ने चालू कर दिया है
अपना देसी कारख़ाना।
सुबह होते ही उनके क्षुंड लग जाते हैं काम पर
कोमल धूप और हवा में अपना वह
समवेत मद्धिम संगीत बिखेरते
जिसे सुनने के लिए तेज़ कान ही नहीं
वसंत से भरा प्रतीक्षारत हृदय भी चाहिए।
आँसुओं से डब-डब हैं मेरी चश्मा मढ़ी आँखें
इस उम्र और इस सदी में।
दो
पूरे शहर पर जैसे एक पतली-सी परत चढ़ी है धूल की।
लालइमली एल्गिन म्योर ऐलेनकूपर—
ये उन मिलों के नाम हैं
जिनकी चिमनियों ने आहें भरना भी बंद कर दिया है।
इनसे निकले कोयले के कणों को
कभी बुहारना पड़ता था
गर्मियों की रात में
छतो पर छिड़काव के बाद बिस्तरे बिछाने से पहले।
इनकी मशीनों की धक-धक
इस शहर का अद्वितीय संगीत थी।
बाहर से आया आदमी
उसे सुनकर हक्का-बक्का हो जाता था।
फिर मकड़ियाँ आईं।
उन्होंने बुने सुघड़ जाले
पहले कुशल मज़दूर नेताओं
और फिर चिमनियों की मुख-गुहाओं पर।
फिर वे झूलीं
और फहराई
फूटे हुए एसबेस्टस के छप्परों
और छोड़ दी गईं सूनी मशीनों पर
अपनी सफ़ेद रेशमी पताका जैसी।
तीन
फूलबाग़ में फूल नहीं
चमनगंज में चमन
मोतीझील में झील नहीं
फ़ज़ल गंज चुन्नी गंज कर्नल गंज में
कुछ गंजे होंगे ज़रूर
मगर लेबर दफ़्तर और कचहरी में न्याय नहीं
चार
पूरी रात तैयारी के बाद अपनी धमन भट्टी दहकाते हैं
सूरज बाबू और चुटकी में पारा पहुँच जाता है अड़तालीस
लेकिन सूनी नहीं होगी थोक बाज़ारों
और औद्योगिक आस्थानों की गहमागहमी
कुछ लद रहा होगा
या उतर रहा होगा
या ले जाया जा रहा होगा
रिक्शों, ऑटों, पिकपों, ट्रकों
या फिर कंधों पर ही ׃
लोहा-लँगड़-अर्तन-बर्तन-जूता-चप्पल-पान मसाला
दवा-रसायन-लैय्यापट्टी-कपड़ा-सत्तू-साबुन-सरिया
आदमी से ज़्यादा बेकाम नहीं यहाँ कुछ
न कुछ उससे ज़्यादा काम का।
पाँच
ककड़ी जैसी बाँहें तेरी झुलस झूर जाएँगी
पपड़ जाएँगे होंठ गदबदे प्यासे-प्यासे
फिर भी मन में रखा घड़ा ठंडे-मीठे पानी का
इस भीषण निदाघ में तुझको आप्लावित रक्खेगा
अलबत्ता
लली, घाम में जइये, तौ छतरी लै जइये
छह
फिर एक राह गुज़री
फिर नई सड़क बेकनगंज ऊँचे फाटकवाला यतीमख़ाना।
बाबा की बिरियानी
‘न्यू डिलक्स’ के ग़रीब परवर कबाब-रोटी विद रायता।
रमज़ान की पवित्र रातें
रात भर चहल-पहल पीतल के बड़े-बड़े हंडों वाले चायख़ानों में
और फिर ईद ׃
टोपियाँ
नए कपड़ों में टोलियाँ
नेताओं और अफ़सरों से गले मिलते लोगों की
सलाना तस्वीरें स्थानीय अख़बारों में।
लाल आँखों वाला एक जईफ़ मुसलमान,
जब वो मुझसे पूछता है तो शर्म आती है ׃
‘जनाब, हमारी ग़लती क्या है?
कि हम यहाँ क्यों रहे?
हम वहाँ क्यों नहीं गए?’
इस पुराने सवाल का जवाब पूछती उसकी दाढ़ी
आधी सफ़ेद आधी स्याह है।
शहर के सबसे ग़रीब लोग
इन्हीं पुरपेंच गलियों में रहते हैं
काबुक में कबूतरों की तरह दुमें सटाए
जिस्म की हरारत से तसल्ली लेते;
सबसे भीषण-जांबाज़ युवा अपराधी भी यहाँ रहते हैं,
किश्तों पर ली गईं सबसे ज़्यादा तेज़ रफ़्तार मोटर साइकिलें यहीं हैं;
सबसे रईस लोग गोकि घर छोड़ गए हैं
मगर उनके अपने ठिकाने अब भी हैं यहीं।
सात
घंटाघर
जैसे मणिकर्णिका है जिसे कभी नींद नहीं।
थके हुए मनुष्यों की रसीली गंध पर
लार टपकाता
एक अदृश्य बाघ
बेहद चौकन्ना होकर टहलता भीड़ में
एहतियात से अपने पंजे टहकोरता
कि कहीं उसकी रोयेंदार देह का कोई स्पर्श
चिहुँका न दे
फ़ुटपाथ पर ल्हास की तरह सोते
किसी इंसान को।
‘नंगी जवानियाँ’
यही फ़िल्म लगी है
पास के ‘मंजु श्री’ सिनेमा में
घटी दर पर।
आठ
गंगाजी गईं सुकलागंज
घाट अपरंच भरे-भरे।
भैरोंघाट में बिराजे हैं भैरवनाथ लाल-काले
चिताओं और प्रतीक्षारत मुर्दों की सोहबत में,
परमट में कन्नौजिया महादेव भाँग के ठेले और आलू की टिक्की,
सरसैयाघाट पर कभी विद्यार्थी जी भी आया करते थे
अब सिर्फ़ कुछ पुराने तख़्त पड़े हैं रेत पर, हारे हुए गंगासेवकों के,
जाजमऊ के गंगा घाट पर नदी में सीझे हुए चमड़े की गंध और रस।
माघ मास की सूखी हुई सुर सरिता के ऊपर समानांतर
ठहरी-ठहरी-सी बहती है
गंधक सरीखे गाढ़े-पीले कोहरे की
एक और गंगा।
नौ
दहकती हुई रासायनिक रोशनी में
बालू के विस्तार पर
सिर्फ़ रेंगता-सा लगता है दूर से
एक सुर्ख़ ट्रैक्टर
सुनाई नहीं पड़ता
चींटियों सरीखे कई मज़दूर
जो शायद ढो रहे हैं कुछ भारी असबाब
जैसे शताब्दियों से!
किरकिराती आँखों से देखता हूँ
बनता हुआ गंगा बैराज।
एक थकी हुई पराजित सेना के घोड़े
और देहाती पदातिक
उतरेंगे अभी
क्लांत नदी में रात के अँधेरे में बार-बार
बिठूर के टीलों भरे तट पर
किसी फ़िल्म में निरंतर दोहराए जाते
मूक दृश्य की तरह।
इसी तट के पार
शुरू होते हैं
उद्योगपतियों के फ़ार्म हाउस
और विलास गृह।
दस
रात है रात बहुत रात बड़ी दूर तलक
सुबह होने में अभी देर हैं माना काफ़ी
पर न ये नींद रहे नींद फ़क़त नींद नहीं
ये बने ख़्वाब की तफ़सील अँधेरों की शिकस्त।
- पुस्तक : कविता वीरेन (पृष्ठ 308)
- रचनाकार : वीरेन डंगवाल
- प्रकाशन : नवारुण
- संस्करण : 2018
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