पेड़ो के गिरने का दृश्य
peDo ke girne ka drishya
आशा नहीं है,
आधार नहीं है
अमुक दिन शाप के अंत का हामी भी नहीं है
अमुक मार्ग से लक्ष्य पर पहुँचने का संकेत भी नहीं है
सोचता हूँ कि सदा जीवन इसी तरह आँसू-सरिता-सा चलता है
फिर भी यह अक्षरशः सत्य है—
सच है कि मित्र वेंकटराव के जीवन में पेड़ गिर रहे हैं
वरना इस सायंकाल के सुहावने समय में अपस्वर यों सुनाई नहीं पड़ते
असल में वेंकटराव का मुख
सड़कों की समस्त धूल और दरिद्रता का
वेंकटराव के मुख पर ही उछल-कूदना संभव नहीं,
असल में वेंकटराव का मुख
हवा और कांतिहीन कमरे-सा
इतना दीन कभी नहीं रहता
अब तो निश्चय बता सकते हैं—
मित्र वेंकटराव बेकार है
इतना ही नहीं,
विचार का विषय हो सकता है—
वेंकटराव का समयरूपी गरुड़, कहाँ, किन काँटों के
पेडों पर विचर रहा है
मर्मस्पर्शी इक दृश्य देखा जा सकता है—
उलटे स्वप्न पर बैठा शल्यावशिष्ट इक बालक
आपादमस्तक सुई से सुसज्जित है,
मुख पर चेचक के चिह्न हैं,
आँखों के वीक्ष्ण मानो पत्थरों की मूर्तियाँ हैं,
उसके चारों ओर पराजय-भार से ढलने वाले वृक्ष,
यह अभी आँखों से देख सकते हैं,
कि बेकार वेंकटराव कहाँ, कब, क्या कर रहा है!
बेकार वेंकटराव नित्य आकाश के नीचे ही बसा रहता है,
पग-पग पर अपना जीवन, ताश के महलों से गिरते दृश्य को
आसानी से हाथों से पकड़ कर
शहर भर में अपस्वर-सा व्याप्त हुआ रहता है
बेकार वेंकटराव सड़कों पर चलने लगे—
तो कहीं निकट में नर-संचार नहीं रहे,
पेड़ों के पत्ते भी नहीं हिलें,
टेलीफ़ोन के तारों में समाचार का प्रसार नहीं होवे।
सूरज में जाने क्यों खिन्न होता है—
जबकि बेकार वेंकटराव नगर के मध्य अपना जीवन खेलता है
बेकार वेंकटराव वायु व धूल में सूखा पत्ता-सा बवंडर में—
घूमता रहता है—
तो शहर के गृहस्थ, संन्यास ग्रहण करते हैं,
बच्चों वाली माताएँ कुओं में कूदती हैं,
विद्यार्थी किताबों को बीच सड़क जला देते हैं
बेकार वेंकटराव नगर के हृदय पर मकड़ी के जाल-सा लपटता रहता—
तो सरकारी भवनों में कहीं क्षण भर किसी की साँस नहीं चलती,
कलम और काग़ज़ लिए अफ़सर
अपने-आप त्यागपत्र पर हस्ताक्षर करता है
बेकार वेंकटराव अपनी भूख को कंकड़-पत्थरों में छिपाता है—
तो राजनीतिक उन्हें नीलाम में ख़रीद लेते हैं
विषाद के रंग के जमने के लिए
कवि-चित्रकार उसके आँसुओं पर शोध करते हैं,
उसके पद-रज में अंधकार के जन्म-विषय को खोजते हैं,
बेकार वेंकटराव अपनी बाल्य-स्मृतियों में लगता है—
तो शहर में उस दिन बच्चे खाना नहीं खाते,
आश्चर्य नहीं होता
जबकि फूल तोड़ते बच्चों को साँप डसे,
पिछवाड़े में आम के पौधे टूट गिरे
बेकार वेंकटराव इस नगर पर एक धब्बा है।
पीडा रूपी दीप पकड़ कर
सर्वनाश रूपी चाभी लेकर
वेंकटराव के जीवन के नरक-कूप में
अनेक भयानक आश्चयों को देख सकते हैं
जीवन पर विश्वास रखने वाले
झट वहीं फंदे पर मर जाना अत्यन्त संभव हो सकता है,
बेकार वेंकटराव वास्तव में इस शहर पर एक धब्बा है
बेकार वेंकटराव मरता नहीं है
मरण रूपी जघन्य पाप करने से
न्यायाधीश हमेशा उसकी रक्षा करते हैं,
सड़कों पर के भिक्षुक उसमें नित्य नई साँस फूँकते हैं
जीवन-माधुर्य के बारे में चींटी भी उसे सावधान करे, तो भी
—आश्चर्य नहीं है
बेकार वेंकटराव कभी मरता नहीं है
इसलिए ही शाम के इस सुंदर समय में शहर भर में अपस्वर भरे हैं
वेंकटराव के चलते मार्ग भर में पेड़ों का गिरता दृश्य।
- पुस्तक : शब्द से शताब्दी तक (पृष्ठ 179)
- संपादक : माधवराव
- रचनाकार : अजंता
- प्रकाशन : आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी
- संस्करण : 1985
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