धरती माता
dharti mata
हे पृथ्वी माता! तुम्हारी छाती पर करोड़ों हल चलाकर
किसान मधुर अन्न की राशियाँ उत्पन्न करते हैं
तुम्हारे सिर पर लाखों मेघ
वर्षा की बूँद रूपी मोती बरसाकर चले जाते हैं
तुम्हारी गोद में हज़ारों नदियाँ
बहकर अमृत रूपी जल भरती हैं
तुम्हारी आँखों में अनंत आकाश के तारे
प्रकाश के सुंदर बंदनवार रचते हैं
तुम युगों-युगों का भार सहन करती हुई
विश्वजीवन के रथ को आगे बढ़ाने के
लिए अपना सारा जीवन वितरित करती हो
तुम्हें सहस्राधिक नमस्कार है।
आकाश में मँडराए हुए मेघ-समूहों से
अमृत रूपी मीठे जल की बूँदों की भिक्षा लेकर
अपने बच्चों को खिला-पिलाकर पालने वाली हे करुणामयी
सस्य श्यामला माँ!
तुम्हारे पुण्य चरणों में तेलुगु के मधुर कवितारूपी प्रसून चढ़ाने
लाया हूँ।
अग्नि-वर्षा करने वाले सूर्य के किरण-जाल के ताप से
जब तुम सूख जाती हो
तब तुमको देखकर पर्वतराज का हृदय पिघल जाता है
और वह छोटे-छोटे स्रोतो के रूप में बहकर
तुम्हारे ताप को दूर करता है।
जब तुम वेदना के वश विह्वल हो जाती हो
तब हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों के प्राण भी सूख जाते हैं
जब तुम हरी-भरी हरियाली से लहलहाती हो तब अकाल दूर हो
जाता है
और पशुओं का पेट भर जाता है।
जब सावन के मेघों की घनी और कोमल छाया
तुम पर छा जाती है और जब वे वर्षा के नव बिंदु-कणों को तुम्हारे
शरीर पर छिड़ककर
तुम्हें प्लावित करते हैं तब किसान अपने-अपने हल लेकर
तुम्हारे मुख की भाग्य-रेखा को सँवारते हैं।
जब तुम्हारे अगाध गर्भ को खोदते हैं
तब हमें युग-युगों का प्राचीन इतिहास रूपी धन
तथा युग-युग के संसार का कला-वैभव दर्शन देता है।
तुम्हारे पुष्पोद्यान प्रेमांजलिबद्ध युवती कन्याओं के सम्मान
अपनी निराली छटा दिखाते हैं
नम्र साधुओं की भाँति फलोद्यान अवनत होकर सुखप्रद होते हैं
इक्षु-वन आमूल चूड़ मधुरिमा से छलकर कविता की तरह
अमृत के झरने बहाते हैं
धान के क्षेत्र पीले-पीले वैवाहिक वितानों के सदृश
नेत्र-रंजन करते हैं
जल-स्पर्श होने पर तुम्हारा शरीर रोमांचित हो उठता है
हल लगने पर उपज उमर उठती हैं
कण-कण में सोने की शलाकाएँ प्राप्त होती हैं
इस प्रकार तुम सार्थक नामधेय वसुमती हो।
- पुस्तक : भारतीय कविता 1954-55 (पृष्ठ 391)
- रचनाकार : नरसिंहाचार्युलु वेमुगंटि
- प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
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