“तुम्हारे दीन मुखों को देखकर
करुणा भरे स्वरों को सुनकर
मेरा हृदय द्रवित हो रहा है।
युग-युगों से
अपमान-भार सिर पर ढोते हुए
जन्म से ही अपनी असहायता को
ललाट-रेखा समझते हुए,
अदृश्य बंधनों में बँधकर कराहते हुए
निर्लज्ज हो जीवन बिताते हैं
तो मेरा हृदय टूट रहा है।
इसके बदले
माता के गर्भकोश में ही मरते तो
जन्म लेने के पहले मिटते तो
कितना अच्छा होता।
संकटमय दरिद्रता और परतंत्रता-ग्रस्त,
अपने जीवन को
और भी दयनीय, हेय औ’ दुखमय बना रहे हो,
तुम मर जाते तो कितना अच्छा होता।
यदि तुम जगकर नव जीवन ढाल नहीं सकते
अपने हृदयों को नवल शक्ति से भर नहीं सकते
आत्म-गौरव के साथ सिर उठा नहीं सकते
तो जन्म लेने के पहले ही मरना अच्छा है।”
यों कितने आक्रोश के साथ
अम्बेडकर हुंकार उठा है
पचास वर्षों के पहले
तरुण वय के दिनों में।
आक्रोश और क्रोध
और भी दृढ़ हो गए हैं
बढ़ते वय के साथ
अनेक रूपों में आवेग प्रकट किया है आंबेडकर ने।
अंत में ऊबकर, निराशा में
अपने सहचरों से कहा है—
“हिंदू धर्म को छोड़कर
नव बौद्ध धर्म को स्वीकार करो।”
ये बातें क्षणिक आवेग का परिणाम रही हैं,
डरपोक की उक्तियाँ नहीं हैं,
दाँव-पेंच की बातें नहीं हैं,
ज्ञानी और अनुभवी होकर
साहस के साथ छुटभैयों को
दिया गया संदेश का बीजमंत्र हैं,
ख़ूब पढ़ा-लिखा है,
देशों में भ्रमण किया है,
ग्रंथ रचे हैं,
देश के मेधावियों का सिरमौर है।
संविधान-स्रष्टा बन ख्याति पाई है,
फिर क्यों कहा कि मरना ही अच्छा है!
यह कहानी आज की नहीं है
महावीर और बुद्ध के पहले से चलती कहानी है,
सहस्राब्दों की आयु लेकर जनमा हुआ शाप है,
अनेक महान मनीषियों ने
इसका विरोध किया है,
पर कल-परसों तक
अस्पृश्यता धर्म का अंग हो, शास्त्र-सम्मत हो
सरकार की उपेक्षा से सजीव रहा करती थीं
गाँवों से दूर, समाज से दूर
ज़िंदगी बिताते थे,
जिनको
कुएँ का पानी भरना मना है,
जूते पहनना मना है,
पाठशालाओं में एक पंक्ति में बैठना मना है
मंदिरों में जाना मना है।
मानव-मानव के बीच
दूरी की दीवारें मानव ने ही खड़ी की हैं।
जन्म के आधार पर ही
उसने ऊँच-नीच का निर्णय किया,
गुणों की पहचान छोड़कर
समाज को चीर दिया
न जाने कितने वर्णभेद, जाति-पातियाँ
कितनी शाखाएँ औ’ उपशाखाएँ
बनाई हैं अगणित संख्या में,
कहने लगे कि
यह सब शास्त्र और आचार है,
धिक्कार जिसका, नरक पुर का द्वार है।
हरिजनों ने दादों-परदादों के ज़माने में
बढ़ते अपमानों को
दरिद्रता के उत्तराधिकार को
भोगा है,
और उसे ही महान संपदा मानकर
पुत्र और पोतों को सौंप दिया है,
इसीलिए आंबेडकर हुँकार उठा है
‘अछूत बन जीने के बदले
मरना ही बेहतर है, मरना ही अच्छा है”
पर मरना कायरों का काम है
अगली पीढ़ियों की मुक्ति के लिए
समाज की शृंखलाओं को तोड़ने के लिए
समान ओहदे के साथ जीने के लिए
साहस के साथ काम करना कठिन है।
मरने से बढ़कर कोई आसान काम नहीं है
अपनी दशा पहचान कर
उन्नत स्थान पा लेना
वीरों का लक्षण है।
“तय कर लो कि तुम वीर हो या कायर
वीर हो तो डटे रहो, करो मुक्ति का घोर समर
कायर हो तो सर झुकाकर
बनो निरीहता का निर्बल शिकार,
या नहीं तो मरो, मिटो
तब पीढ़ियों का कलंक मिट जाएगा
न कोई पुत्र रहेगा, न अस्पृश्यता रहेगी
न अपमान रहेगा,
कायरों के स्वर्ग का सिंगार बढ़ेगा।”
यह नव जागृति का जागरण-गीत है
यह नई चेतना का वीर-निमंत्रण है
मानव-दुर्बलता को इलाज चाहिए
शताब्दियों के नशे का नाश चाहिए।
“आत्मभक्ति विहीन हो जड़-से रहते हो
बहुमत से राज्य पर कब्जा करो
कुंभकर्ण ने भी जगकर समर किया है
क्या चिर कुंभकर्ण बनकर सोते रह जाओगे?
सहस्रों वर्षों के ग्रहण का कोई अंत नहीं है?
दुर्दिन का तिमिर चीरकर दिनकर-कर कब फूटेंगे?
तम के परदे को मिटाने किरण बाण कब छूटेंगे?”
यों सागर-सा हुँकार उठा है,
पंचमों की मुक्ति हेतु पंचानन बन गरज उठा है,
घनघोर वज्र-सा टूट पड़ा है,
भावी के दिगन्तों में बिजली-सा कौंध उठा है।
गांधीजी के निर्माण के कार्य-कलाप
हरिजनोद्वार के लिए अनशन, देश भ्रमण
विद्यार्जन की सुविधाएँ, छात्रावास
शास्त्रों की नई व्याख्याएँ।
“अस्पृश्यता जीती है तो हिंदू धर्म मिटता जाता है”
इस नारे को बापू
स्वातंत्र्य समर के शंखनाद-सा
उद्घोषित करते,
अग्रवर्णजों में परिवर्तन लाते,
'हरिजन' उनको कहते आए।
पर आंबेडकर दलितों की
आशावाणी बन खड़े हुए हैं।
हिंदू धर्म का अनुसरण करने पर भी
विष्णु और शिव की पूजा करने पर भी
मंदिर प्रवेश, जिन अभाग्यों को मना है,
उन्हें देवालय-प्रवेश के कानून बने हैं।
कहा गया है कि
अस्पृश्यता का आचरण करने वालों को
दंड दिया जाएगा।
गांधीजी का प्रेमभरा प्रचार
आंबेडकर के क्रोधभरे भाषणों के आसार
सब वयस्कों को मतदान का अधिकार
विधानसभाओं के स्थान का आरक्षण
उच्चशिक्षा की सुविधाएँ, छात्रावास—
इन सबने उनमें जागृति फैलाई।
जाग पड़े हैं शताब्दियों की नींद के नशे को छोड़कर
खड़े हुए हैं युग-युगों की समाज-शृंखलाएँ तोड़कर
अस्पृश्यता मर रही है, पर अभी पूरी तरह नहीं,
उसके मरने के लिए और समय लगना है
वह मज्जागत हो, रक्त-मिश्रित हो
पीड़ित करतीं आचार-परम्पराएँ
क्या इतना शीघ्र मरेंगी
शास्त्र-समर्थन से
धर्म और ईश्वर के नाम से
अनादि से आते विश्वास यों ही नहीं मरते,
उनकी आयु बड़ी है, वे मरकर भी फिर जीते रहते हैं।
समय-समय पर सुधारकों ने
अंधविश्वासों के सिर फोड़ दिए हैं।
बहुत से बगावत कर
अन्य धर्मावलम्बी हो गए हैं,
पर अस्पृश्यता का पिशाच तो नहीं मरा है।
लोकतंत्र के सूर्योदय से
जनता के राजनीतिक अधिकारों से
ताकिक औ’ वैज्ञानिक युग से
मूढ़ाचार का तिमिर
बिखर कर हो जाएगा तितर-बितर,
मानवता के दुर्बल विश्वास मिटेंगे
जनता की समानता वांछनीय है,
वही सर्वोदय है, अन्त्योदय है
वही संपूर्ण क्रांति का नवोदय है।
- पुस्तक : लोकालोक (पृष्ठ 20)
- रचनाकार : बी. गोपाल रेड्डी
- प्रकाशन : वाणी प्रकाशन
- संस्करण : 1989
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