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तीन उपशीर्षकों वाली एक कविता

teen upshirshkon vali ek kavita

सुरेंद्र स्निग्ध

सुरेंद्र स्निग्ध

तीन उपशीर्षकों वाली एक कविता

सुरेंद्र स्निग्ध

और अधिकसुरेंद्र स्निग्ध

    18 जुलाई, 1994 की रात

    एक

    बचा रहे सिर्फ़ एक बीज

    कल की रात

    मेरा मानसिक धरातल था बृहस्पतिग्रह

    विचारों के धूमकेतु के विशालकाय अग्निपिंड

    टकरा रहे थे इससे लगातार

    सोचता रहा मैं

    हो जाए नष्ट यह बृहस्पति

    नष्ट हो जाए पूरा ब्रह्माँड

    चर अचर सब कुछ

    कुछ भी नहीं बचे

    कुछ भी नहीं

    मेरी कोई कविता भी नहीं

    कोई एक भी शब्द

    कुछ भी नहीं बचे

    बचा रहे सिर्फ़ यह छोटा-सा बीज

    कल की रात

    तनाव में था सारा ब्रह्माँड

    ब्राजील के फुटबॉल खिलाड़ी रोमेरियो की तरह

    तनाव में थी पूरी प्रकृति

    इटली के रोबर्टो वैजियो की तरह

    इस तनाव में

    कैसे लिखी जाती कोमल कविता

    कैसे ढलते शब्द

    तानता के चरम-बिंदु पर

    सब कुछ टूट जाता है

    टूट जाते हैं

    ग्रह-नक्षत्रों के तमाम चुंबकीय सूत्र

    ब्राजील और इटली की तरफ़ के

    गोलपोस्टों के जाल को

    विचारों की गेंद से

    मैं करता रहा तार-तार

    करता रहा विस्फ़ोट

    वहाँ पैदा हो रही है

    अग्नि की अपूर्व लपट

    अग्नि की इस लपट से

    कैसे बचा पाऊँगा मैं

    अपनी कोमल कविता

    इसके गर्भ में कैसे

    समाहित कर सकूँगा

    अग्नि की यही लपट

    विचारों का अक्षय भंडार

    दो

    मज़बूत पुट्ठों वाला घोड़ा

    (साथी कवि महेश्वर को याद करते हुए)

    कल की रात कविताओं में ढूँढ़ता रहा अपना एक दोस्त

    एक एक्टिविस्ट

    एक कामरेड

    एक चिंतक

    एक कवि

    आज है वह

    सारे ग्रह नक्षत्रों से दूर

    जब तक रहा

    इस छोटे-से भूखंड पर

    टकराता रहा

    धूमकेतु की तरह

    टकराता रहा

    विचारों के बृहस्पति से

    आज उसके लिए

    मेरी कविता बहुत छोटी पड़ रही है

    ओछे पड़ रहे हैं शब्द

    सदियों से पीड़ित

    दुखी

    लेकिन संघर्षरत लोगों की

    निस्तेज आँखों की वह था चमक

    जगह-जगह की ईंटों और

    अनगढ़ पत्थरों को हमने

    कई बार बटोरा था साथ-साथ

    मानव-मुक्ति का पक्का घर बनाने हेतु

    हमने रखी थी नींव

    विचारों के अग्नि-पिंड से

    सघन अंधकार को भेदने की कोशिशें

    की थीं हमने लगातार

    साथियो,

    मैं तो थोड़ा रुक भी गया था—

    संशय के बादल

    घिर आए थे मेरे गिर्द

    रुका नहीं था वह

    मृत्यु की गहरी खाई में भी

    मज़बूत पुट्ठे वाले घोड़े की तरह

    दौड़ता रहा था लगातार

    उनके लंबे आयाल

    सूर्य की अगवानी में

    बिछ गए थे रेड कार्पेट की तरह

    मौत को भी धता बताते हुए

    वह दौड़ता रहा

    आँधी की तरह

    तूफ़ान की तरह

    संघर्ष के एस्ट्रो टर्फ़ पर

    वह दौड़ता रहा

    किसी अथक रोमेरियो की तरह

    या कि किसी बैजियो की तरह

    निशाना रहा हमेशा गोलपोस्ट

    उसके लिए

    यह पृथ्वी थी फुटबॉल

    पूरी शक्ति के साथ

    विचारों के गोलपोस्ट में

    दाग दिया था इसे

    बिना किसी थकान के

    बिना किसी तनाव के

    तीन

    प्रेमः एक दुर्गम पहाड़

    (कवि गोरख पांडे की आत्महत्या पर)

    नहीं लिखूँगा

    इसबार कोई प्रेम कविता

    सोचता रहा था कल की रात

    मैं लिखूँगा कविता

    एक कवि मित्र के नाम

    जिसके लिए

    प्रेम था एक दुर्गम पहाड़

    प्रेमिका थी

    इसी पहाड़ के झीने पर्दे के उस पार

    इस पार थी

    सड़ी गली व्यवस्था

    युगों से शापित मानव-जाति

    इसे बदल डालने के लिए

    कवि की आँखों में थे सपने

    सपनों का ठाठें मारता समंदर

    आँखों में थी

    धुँधली-सी तस्वीर

    उस प्रेमिका की

    जो थी दुर्गम पहाड़ के उस पार

    पहले ही मैंने कहा था साथियो,

    पहाड़ था वह झीना सा पर्दा

    सपनों में हटता था यह पर्दा

    या यूँ कहिए, उड़ जाता था पहाड़

    लगाकर उजले-उजले पंख

    और सामने होती थीं हरियालियाँ

    सिर्फ़ हरियालियाँ

    सागर के अनंत विस्तार वाली

    हरियालियाँ

    कहता था कवि मित्र—

    “साथी,

    लाल घोड़े पर सवार होकर

    आता हूँ इन हरियालियों में

    इसे देखते ही जगती है प्यास,

    कैसी है यह प्यास!

    कैसे बुझेगी यह प्यास!

    इन हरियालियों में

    पता नहीं क्यों

    कहीं नहीं है एक बूंद

    मीठा जल

    कहीं नहीं फूटता है प्रपात

    कहीं से कोई पंछी

    चोंच में भरकर नहीं लाता है जल

    कहीं किसी पत्ते पर

    या फूलों की नन्हीं कोमल पंखुरियों पर

    अटका नहीं मिलता है ओस-कण

    कितना प्यासा हूँ दोस्त!

    दूर देश से आने वाला यह लाल घोड़ा भी

    बहुत प्यासा लगता है दोस्त!”

    सचमुच बहुत प्यासा था वह

    मौत की ठंडी गोद भी

    नहीं बुझा सकी उसकी प्यास

    फूलों से कटती हुई दिल्ली

    बन गई उसका क़ब्रगाह,

    है सचमुच प्रेम बहुत कठिन

    प्रेम कविता लिखना

    और भी कठिन है मेरे दोस्त

    प्रेम करना तो और भी कठिन।

    जीवन से

    हाँ, खासकर जीवन से।

    स्रोत :
    • रचनाकार : सुरेंद्र स्निग्ध
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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