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तारे

tare

अनुवाद : नवारुण वर्मा

अनंत आकाश में विराजित कौन हो तुम सारे,

किस कारण से यों ध्यानमग्न, हैं क्या कोई दुख-शोक तुम्हारे?

किन कामों में तल्लीन मन, किन भावों में हो विभोर?

सामान्य मानव मैं सोच मिलता कहीं ओर-छोर।

पाप-ताप, दुख-क्लेश, देखकर धरती के

क्या है हृदय व्यथित? झरते, नयन-नीर?

उठता-विद्वेष हिंसा-विष से जर्जर

हमारे अंतर को देख फट रहा क्या तुम्हारा अंतर?

टप्-टप् आँसू, ओस के कण

गिरा रहे हो, क्या किसी शोक में? कुछ भी तो पता नहीं,

या हो, स्वर्ग-उपवन में स्वर्ग-सुमन

खिले हुए सदानंद मन

निर्मल विमल श्वेत चांदनी, सुरभि कर दे वितरित!

स्वर्ग में प्रेम-हास, नहीं शोक-ताप संचित

या तो अपूर्व मणि-मुक्ताएँ जगमग उच्छल

विश्व पति के विश्व गृह में करती है झलमल?

या तो विधाता के लक्ष-लक्ष, कोटि-कोटि नयन

चारों दिशाओं में अधः उर्द्ध चराचर व्यापी घन

पाप पुण्य सुकृति दृष्कृति का निरंतर कर दर्शन

करते विधान पुरस्कार का या दंड का सघन

परम अज्ञ मैं हूं रंक मैं मानव!

दो ज्ञान अधम को जो देवाधिदेव।

स्रोत :
  • पुस्तक : बेजबरुआ की चुनी हुई रचनाएँ (पृष्ठ 14)
  • रचनाकार : बेजबरुआ
  • प्रकाशन : राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
  • संस्करण : 2008

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