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संयमशीलता

sanyamshilta

तिरुवल्लुवर

तिरुवल्लुवर

संयमशीलता

तिरुवल्लुवर

और अधिकतिरुवल्लुवर

    121

    संयम देता मनुज को, अमर लोक का वास।

    झोंक असंयम नरक में, करता सत्यानाश॥

    122

    संयम की रक्षा करो, निधि अनमोल समान।

    श्रेय नहीं है जीव को, उससे अधिक महान॥

    123

    कोई संयमशील हो, अगर जानकर तत्व।

    संयम पा कर मान्यता, देगा उसे महत्व॥

    124

    बिना टले निज धर्म से, जो हो संयमशील।

    पर्वत से भी उच्चतर, होगा उसका डील॥

    125

    संयम उत्तम वस्तु है, जन के लिए अशेष।

    वह भी धनिकों में रहे, तो वह धन सुविशेष॥

    126

    पंचेन्द्रिय-निग्रह किया, कछुआ सम इस जन्म।

    तो उससे रक्षा सुदृढ़, होगी सातों जन्म॥

    127

    चाहे औरों को नहीं, रख लें वश में जीभ।

    शब्द-दोष से हों दुखी, यदि वशी हो जीभ॥

    128

    एक बार भी कटुवचन, पहुँचाए यदि कष्ट।

    सत्कर्मों के सुफल सब, हो जाएँगे नष्ट॥

    129

    घाव लगा जो आग से, संभव है भर जाय।

    चोट लगी यदि जीभ की, कभी मोटी जाय॥

    130

    क्रोध दमन कर जो हुआ, पंडित यमी समर्थ।

    धर्म-देव भी जोहता, बाट भेंट के अर्थ॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : तिरुक्कुरल : भाग 1 - धर्म-कांड
    • रचनाकार : तिरुवल्लुवर

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