आओ सा'ब, मेरबान हुजूर पधारो, आए कैसे, हमारे यहाँ?

सिकायत सरकार? हमारे बस्ती वालों के खिलाफ?

फौजदारी?

ऐसा तो होता रहता है सा'ब, सिकायतें तो होती रहती हैं,

दीवानी की भी होती हैं और फौजदारी की भी, इसमें आपको दौड़ने की

क्या ज़रूरत थी?

आप तो इस काबिल हैं कि कचहरी में बैठकर सिकायतें सुनें,

और हम इस काबिल हैं कि कचहरी में आकर सिकायत करें।

बस्ती वाले भी, गोदाम वाले भी।

सरकार आप तो बस सुन लें: ज़्यादा-से-ज़्यादा सबको अपने बँगले पर

बुलाकर सुन लें।

ना ना, सरकार भला हम गुनाह करेंगे? और वह भी ऐसा कि गुनाह लागू

हो हम पर?

हम तो साहब—अगर आप गिनने जाएँ तो हम हज़ारेक कुटुम्ब की

बस्ती वाले,

पाँच-छह हज़ार लोगों की हमारी बस्ती,

हर एक दो-दो बार वोट दे, तो आँकड़ा दस-बारह या पन्द्रह हज़ार पर

पहुँचता है।

पाँच साल में एक बार अब तो समझो दो बार

तीन-तीन बार भी होता है, वो, कभी-कभी

तो हुजूर, आँकड़ा छत्तीस हज़ार पर पहुँचता है।

अब आप ही कहो, आप तो सब जानते हैं,

भला छत्तीस हज़ार लोग गुनाह करेंगे?

नहीं ही करेंगे ना, सरकार? वाह! आप सब कुछ पचा जाते हैं, समझदारी

के साथ।

हम तो आपकी संतान हैं, माई बाप! आप भला कैसे हमारा बुरा चाहेंगे,

कभी भी?

और अब गोदाम की तो पूरी पहेली ही सुलझ गई सरकार। हमने तो इसे

खोल डाला।

हमने गोदाम खोला और हमारी आधी बस्ती तो वहीं रहने चली गई सरकार!

यूँ भी हमारी बस्ती की

आबादी बहुत बढ़ गई थी आजकल!

सरसामान? बड़े सा'ब! कैसा सरसामान?

सरसामान का तो यूँ है : अच्छा था।

कुछ का तो एक्षपोट हो गया;

और जो बाकी रहा, मैंने कहा था न, वैसे

डिछपोज कर दिया, सा'ब,

अब आप से क्यों छिपाएँ नामदार?

इस पर भी जो बच गया, हुजूर उसे

हम सब बस्ती वालों ने यूज में ले लिया :

दिन-दोपहर यूज वाली दिन-दोपहर

और रात वाली रात-आधी रात।

बच्चों ने, जनानियों ने और मर्दों ने, सबने अपने-अपने ठिकाने लगा दिया।

अब तो हम बड़े मज़े से गोदाम की चीज़ों को काम में लाते हैं, बड़े साब!

गोदाम में सामान भी तो ऊँचे किस्म का था; मालिक!

कुछ सड़ा-गला सामान भी हो, वह बात नहीं;

लेकिन उसे तो हमने काम में ले लिया

खाई-खंदकों को पाटने में।

बाकी की चीज़ें काम में ले ली हैं।

उस छुटकू की कलाई में घड़ी देखी, साब?

अरे छुटकू ! सरकार को अपना टेम तो बता।

हुजूर, घड़ी मिली तो उसे देखना भी सीख गया, वो साला पिद्दी!

और उस मोड़ी ने जो गहने लटका रखे हैं,

वे सब गोदाम के अंदर से ही निकाले थे, सरकार!

आसीरवाद दो, मालिक,

अरे वो अतर की फुसफुस वाली कुप्पी ला, एक्षपोट वाली,

लगा साहब के, लगा-लगा, वाह रे वाह, मालिक!

हाँ, हाँ, काँख-बगल को भी महका दे!

पहले तो कैसी बदबू मारता था, गोदाम, तब, जब बन्द था!

नहीं हुजूर. फिलहाल तो कोई सिकायत नहीं है।

अब आपको जाना हो तो जाएँ हुजूर,

देखो न, गोदाम का सवाल तो सुलझा डाला है इस बस्ती ने ही, सरकार!

स्रोत :
  • पुस्तक : जटायु, रुगोवा और अन्य कविताएँ
  • रचनाकार : सितांशु यशचंद्र
  • प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन

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