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सूर्य हैं!

surya hain!

मलय

मलय

सूर्य हैं!

मलय

और अधिकमलय

    जब क़दम उठाता हूँ

    तो खिंची आती है ज़मीन

    और एक उठता

    पहाड़ बन जाता है

    और क़दम बढ़ाकर रखता हूँ

    तो उसकी चोटी से

    यात्रा की नदी बह जाती है

    फिर अकेला नहीं रहता

    ज़मीन की चीज़ों में

    जीवों में

    यानी पेड़ों आदमियों में भी

    दौड़ना शुरू करता हूँ

    तब जो कुछ बोलता हूँ

    हरा होता है

    और जिसे देखता नहीं

    वह पीला होकर

    मिट्टी में बदल जाता है

    मैं मिट्टी को हाथ में लेकर

    प्यार करता हूँ

    जो साँस-साँस सेती है

    तलवारों को जंग से कुतरती हुई

    वहीं मैं इतिहास को भूली बाँसुरियों को

    सुनता हूँ

    तो अंकुरों की

    मेमनों की

    पक्षियों की बछड़ों की

    और बच्चों के कानों में से उतरती

    कविता के आदि-शब्द की तरह

    किरणों से नहाई

    आकाश फैली

    संवेदना के लहरते बाँध खोल देता हूँ

    यानी नदी में उतरी बाहरी यात्रा को

    अंदर के संसार में बदल देता हूँ

    हाँ, ये शब्द और कुछ नहीं

    बाहर की नदी यात्रा को

    शरीर के अंदर बहा ले जाने वाले

    सूर्य हैं

    जहाँ धूप खिलती है

    आतप होता है

    पानी बरसता है और

    पृथ्वी पर का वांछित

    हरा होता रहता है

    करना ही होता है दौड़ना

    जिसमें कवि का मैं

    सभी की धड़कनों में पहुँचकर

    उनका हूँ हो जाता है।

    स्रोत :
    • रचनाकार : मलय
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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