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सर्जन-विसर्जन

surgeon wisarjan

प्यारा सिंह सहराई

प्यारा सिंह सहराई

सर्जन-विसर्जन

प्यारा सिंह सहराई

और अधिकप्यारा सिंह सहराई

    विषाद में लाती है लीला प्रकृति की

    अटल नियमों का दिखाई देता चारों ओर शोर

    हर किरण में चेतना लैंगिक समाई है यहाँ

    सृजन और विसर्जन का है आदिम यह भोर।

    ज़िंदगी के तीव्र भाव मक़सद है जीना

    जीने को ही धारण करता मानव सौ-सौ रूप

    पल्लवित-पुष्पित प्रक्रिया निशिदिन आदिम यहाँ

    प्राणी अपनी जान बचाए, धारे कितने रूप।

    रूप-रंग और ढंग कई मिलते हैं ऐसे

    कैसा अद्भुत यहाँ है जीवन का व्यवहार

    विश्व-चेतना के अभाव में रहेगी कैसे

    कण-कण में रचना, सर्जन की यह साकार।

    सहज बोध, अंतर्दृष्टि आख़िर हैं क्या

    विश्व-चेतना का ही यदि ये अंश नहीं हैं

    कितने ग्रह हैं सभी बुद्धि को भ्रमित कर रहे

    कहीं यही तो सिर्फ़ चेतना का नहीं हिस्सा?

    निज दर्शन जड़-चेतन का अंतर समझाते

    धरा चीरती जल तक गहरे उतर रहीं

    पूनम को उजलापन भाता सदा वार्षिक

    सहरा का कण-कण इसकी सुगंध महकाए

    धरती से सागर फूटें, पर्वत, सागर से

    अद्भुत से व्यवहार दिखाई देते रहते

    कितना कुछ परिवर्तन में प्रतीत हो रहा

    नया रूप और रंग सभी कुछ इसका कहते।

    जीवन एक सत्य और फिर इसका जीना

    विकसित होना एकमात्र काम है इसका

    मौत एक माध्यम इसके रूपांतर का ही

    एक मात्र अस्तित्व मौन का मीत धाम है।

    लेकिन जन में कहीं नाम नहीं करुणा का

    प्रेम-प्यार से अलग सभी प्रदर्शन इसका

    नाश-विनाश का अंतर नहीं समझ पाते हैं

    तारा कहीं डूबता, उगता कहीं सितारा।

    चेतन है बस धर्म मात्र मानव जीवन का

    भले-बुरे का भेद यहाँ तो सदा निरखता

    बना यहाँ भगवान राम राक्षस है रावण

    एक ओर कैकेयी, दूसरी तरफ़ है सीता।

    सदा रहे सापेक्ष पवित्र और अपवित्र

    तुम्हें लगा जो सुंदर मेरे लिए बुरा है

    जिससे करो नफ़रत तुम, मैं उसको चाहूँ

    तुम्हें घृणा लगता मैं उसे निरंतर चाहूँ।

    यही फ़र्क़ तो आख़िर मानव को खलता है

    मन की पीड़ा का कारण इसको ही माना

    छिटका कुदरत से जो हुआ स्वतंत्र अंततः

    तभी वियोगी पथ पर पड़ता चरण बढ़ाना।

    रहें परस्पर व्यवहारों में यों हम जीवित

    प्राकृतिक संगम इसका साथ दे रहा

    भय के कारण ही यथार्थ का ज्ञान हुआ है

    और संताप से मुक्त वस्तुतः भान हुआ है।

    आँसू के बाग़ों में फिर से फूल खिलेंगे

    हँसी तभी फूटेगी महकेंगी मुस्कानें

    सभी एक जैसे हैं कोई ग़ैर नहीं अब

    कोई द्वेष फिर मन को भटकाने वाला।

    स्रोत :
    • पुस्तक : बीसवीं सदी का पंजाबी काव्य (पृष्ठ 64)
    • संपादक : सुतिंदर सिंह नूर
    • रचनाकार : कवि के साथ अनुवादक फूलचंद मानव, योगेश्वर कौर
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2014
    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों का व्यापक शब्दकोश : हिन्दवी डिक्शनरी

    ‘हिन्दवी डिक्शनरी’ हिंदी और हिंदी क्षेत्र की भाषाओं-बोलियों के शब्दों का व्यापक संग्रह है। इसमें अंगिका, अवधी, कन्नौजी, कुमाउँनी, गढ़वाली, बघेली, बज्जिका, बुंदेली, ब्रज, भोजपुरी, मगही, मैथिली और मालवी शामिल हैं। इस शब्दकोश में शब्दों के विस्तृत अर्थ, पर्यायवाची, विलोम, कहावतें और मुहावरे उपलब्ध हैं।

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