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ग्रीष्म

greeshm

सुशीला सामद

सुशीला सामद

ग्रीष्म

सुशीला सामद

और अधिकसुशीला सामद

    करने अब आए क्यों दग्ध,

    बरस रहा है हृदय अपार?

    या दीनों का हाहाकार,

    उड़ता है होकर चीत्कार॥

    आज बढ़ा यों अत्याचार,

    हुए व्यर्थ शीतल उपचार।

    भवन बन गया कारागार,

    तन होता जल जल कर क्षार॥

    विहग बैठे साधे मौन,

    छिपे हैं पत्ते के बीच।

    कौन अलापेगा कल कंठ?

    ग्रीष्म ने छोड़ा शर नीच॥

    चूस लिया पत्ते पत्ते से,

    कुसुमाकर का किसलय-जाल।

    मसल रहा मोहक फूलों को,

    बन राक्षस निदाघ का काल॥

    बना है बाउल मलय-पवन

    कँपा देता है शांत गगन।

    भर रहा रज से विमल दिगंत

    लौटता है अब कहाँ वसंत?

    धरा का लिथड़ता अंचल,

    हैं थक कर नयन अचंचल।

    पहना पृथ्वी के बल्कल

    छलक रहे आँसू छल छल॥

    वेदना से है अपनी त्रस्त

    चेतना हुई हृदय से अस्त।

    गुँजाती वह दुखी दिगंत,

    कहाँ हो गया विलीन वसंत॥

    जिसके विरह-वायु की ताप,

    बना है आज लूक संताप।

    वहन करता है जिसे पवन,

    झुलस जाता जिससे कन-कन॥

    रहेगी सदा यह भी रात,

    होगा कभी विरह का प्रात।

    फिरेंगे प्यारे घनश्याम,

    दिखाने को निज रूप ललाम॥

    हरेंगे यह आतप-संताप,

    खिलेगी धरा आप ही आप।

    बनेगी पुनः सुधा का धाम,

    रहेगा नहीं ग्रीष्म का नाम॥

    स्रोत :
    • पुस्तक : प्रलाप (पृष्ठ 82)
    • संपादक : वंदना टेटे
    • रचनाकार : सुशीला सामद
    • प्रकाशन : प्यारा केरकेट्टा फ़ाउंडेशन
    • संस्करण : 2017

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