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रस्सी से फाँसी के फंदे ही नहीं बनते

rassi se phansi ke phande hi nahin bante

गुलज़ार हुसैन

गुलज़ार हुसैन

रस्सी से फाँसी के फंदे ही नहीं बनते

गुलज़ार हुसैन

और अधिकगुलज़ार हुसैन

    रस्सी से केवल फाँसी के फंदे ही नहीं बनते

    इससे झूला भी बनता है

    पेड़ों की शाख पर लटकते झूलों में

    खिलखिलाते बच्चे

    देखते हैं आकाश छूने का सपना

    रस्सियों के सहारे सैलानी तानते हैं तंबू

    ओर निर्जन स्थानों पर पा जाते हैं घर-सी शांति

    इससे लाँघते हैं पर्वतारोही दुर्गम नाले

    और आत्मविश्वास से जा पहुँचते हैं चोटी तक झंडा फहराने

    भारी सामान खींचने का समय

    मज़दूरों के लिए रस्सी सबसे बड़ी मित्र होती है

    इस मज़बूत रस्सी में मिलता है उनका पसीना

    और असर हो जाती है रस्सी

    छत और आँगन पर

    रस्सी की अलगनी नई दुल्हन की सहेली बन जाती है

    जिस पर पसार आती है वह कपड़ों संग अपने दुख

    और निश्चिंत होकर देख लेती है आकाश में उड़ती पतंग को कई बार

    सड़क पर तमाशा दिखाने वालों की बेटियों के आँसू

    सबसे पहले रस्सी ही पोंछती है

    और बनाती है उन्हें सबसे बड़ी कलाकर

    वे जब रस्सी पर चलती हुई घबराती हैं

    तो रस्सी उनके तलवों से चिपक जाती है

    उन्हें गिरने नहीं देती

    उसी समय लोग दाँतों तले उंगलियाँ दबा लेते हैं

    और तालियाँ बजाते हुए फेंकते हैं पैसे

    बड़ी-बड़ी बाधाओं को लाँघने का सपना

    छोटी लड़की तब से देखना शुरू करती है

    जब वह रस्सी कूदती है

    रस्सी लोगों को जीने का मार्ग बताती है

    नदी में डूबते लोगों को बचाती है

    लेकिन वह गले का फंदा बनना नहीं चाहती।

    स्रोत :
    • पुस्तक : दूसरी हिंदी (पृष्ठ 93)
    • संपादक : निर्मला गर्ग
    • रचनाकार : गुलज़ार हुसैन
    • प्रकाशन : अनन्य प्रकाशन
    • संस्करण : 2017

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