बाज़ार में देह—देह में आत्मा
पता नहीं कहाँ से आती है आत्मा
हवा में उड़ती हुई
या पूरब दिशा से चलती हुई
कि इन्हें रखता है हमारी देह में भगवान
कि इन्हें माँ डालती है
कि हममें इसे रचता है संसार
मेरी देह में इतनी क्रूर आत्मा
मैं कैसे रहूँ
गड़ती है ये तेज़ चाक़ू के समान
मेरे कोमल मन को हतती हुई
मेरे आदमी को भयानक भोगी बनाती
भयानक हत्यारे में तब्दील करती हुई
मुझे इस तब्दीली का प्रायः नहीं हो एहसास
पर अगर याद करूँ तो
एक बार जब मुझे इसका हुआ था
एहसास
तो महीनों मैं मलेरिया में पड़ गया था
ख़ून की उल्टी आने ही वाली थी
कि उसे डॉक्टर ने रोक लिया था,
यह आत्मा मेरी कभी राजा बन
मुझ पर आदेश चलाती
कभी बन के महाव्यापारी
मुझे बीच बाज़ार में बेच आती
इसके पास आरी है, कुल्हाड़ी और
बंसुली है
ये बढ़ई की तरह मुझे काटती
कभी लोहार के मानिंद
मेरे मन को अग्नि में तपाती,
बताइए न इस आत्मा का क्या किया
जा सकता है
या तो इसमें बम बाँध इसे उड़ाया जा सकता है
या क़िस्मत का पिंजड़ा खोल
इसे भगाया जा सकता है
पता नहीं औरों को होता है कि नहीं
पर इधर लगातार हो रहा है
मुझे मेरे आदमी के मरण का एहसास
बच सको तो बचो मेरे आदमी
अपने भीतर आकार ले रही
अपनी इस क्रूर आत्मा से।
- पुस्तक : खुदाई में हिंसा (पृष्ठ 46)
- रचनाकार : बद्री नारायण
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2010
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