कल भी
अपने काम से काम रखना
भूल-चूक लेनी-देनी
जिन्होंने दिल दुखाया
उन्हें भुला देना
जो काम आएँगे
उनका ध्यान रखना
किसी अजनबी का यक़ीन मत करना
संगीत को संगीत की तरह लेना
भटकना मत स्मृतियों में
समय ख़राब है
उलझी हुई छवियों के जंगल हैं
लौट ज़रूर आना समय से
करने हैं अभी कई काम
यह जो मकान है
जिसमें तुम रहते हो
इसमें कोई तलघर नहीं है
इसमें आईने नहीं हैं
इसमें प्रतिध्वनियाँ नहीं हैं
इसमें कोई पिछवाड़ा नहीं है
हँसी ख़ुशी अवसाद अकेलापन
कविता के रूपक हैं
महापुरुषों ने कहा है कि दीन से प्यार करना
पर ताक़तवर को मत टोकना
क्रोध आए तो आपा मत खोना
पछताना मत
उदास मत रहना
मुश्किलें यूँ ही बढ़ती जाती हैं जहाँ
मेज़ को मेज़ कहना
चाक़ू को चाक़ू
मृत्यु हमेशा मृत्यु है
कुछ बेवक़ूफ़ इनके भेद खोलने में लगे रहते हैं
कुछ जिज्ञासु बेमतलब रोते रहते हैं
तुम रहस्य मत ढूँढ़ना
पक्षियों के उड़ने में कोई नई बात नहीं है
घास के हिलने का कोई अर्थ नहीं है
कहीं नहीं मिलते धरती और आकाश
नदियों को बहना है तो वे तो बहेंगी ही
यह क्षितिज सपाट है
यह एक दीवार है
और दूसरी दीवारों की तरह
इसके पीछे से
मरे हुए बुज़ुर्गों की फुसफुसाहटें नहीं आती
किसी याचना
किसी पुकार
किसी उत्तेजना
किसी घोषणा का कोई मतलब नहीं है
जो बीत गया
कोई और युग था
जो नहीं बीता
वह पूरे काग़ज़ पर ख़ाली जगह है
शब्द लिखने के बाद भी वह भरेगी नहीं
पिछले साल की ग़लतियों से सीखना
जीवन और जीवन नहीं है
साँस और साँस नहीं है
नींद एक विस्मृति है
सोते वक़्त दरवाज़ा ठीक बंद कर लेना
सुबह का आगमन एक नियम है
दरवाज़ा कल भी खुलेगा रोज़ की तरह
घड़ी कभी ख़राब नहीं होगी
बाहर सीढ़ियाँ होंगी रोज़ की तरह
रोज़ की तरह मील के पत्थर
रोज़ की तरह चेहरे
बाहर सूचनाएँ होंगी रोज़ की तरह
नियम
तालिकाएँ
गणित
चेतावनियाँ
शेयर बाज़ार के उछलते गिरते भावों की लुकाछिपी
लुच्चे-लफ़ंगे, उठाईगीरे, हत्यारे और दलाल
बाहर रोज़ की तरह महापुरुष होंगे
रोज़ की तरह सड़क पर खुले हुए मेनहोल
तुम्हें तो अपना ब्लड-ग्रुप तक याद नहीं
तो कल भी
रोज़ की तरह कुछ आवाज़ों के पीछे जाना
जल्दी-जल्दी दौड़ना
क़तार में खड़े हो जाना
सूचनापट्ट को भविष्य की तरह पढ़ना
देखना मत यहाँ वहाँ
पर्स कँघी रूमाल और चाबी सभी की हिफ़ाज़त ज़रूरी है
जूतों पर रोज़-रोज़ पालिश की अहमियत है
रोज़ की तरह सड़कें सीधी और सपाट
पीछे क़तार में कई लोग
लगातार आगे बढ़ने को कहते रहेंगे
जीवन में हर चीज़ ग़ौरतलब
बस अब आँखें मूंदो और सो जाओ
रोज़ की तरह।
- पुस्तक : समकालीन सृजन : कविता इस समय (पृष्ठ 159)
- संपादक : मानिक बच्छावत
- रचनाकार : विजय कुमार
- संस्करण : 2006
Additional information available
Click on the INTERESTING button to view additional information associated with this sher.
About this sher
Lorem ipsum dolor sit amet, consectetur adipiscing elit. Morbi volutpat porttitor tortor, varius dignissim.
rare Unpublished content
This ghazal contains ashaar not published in the public domain. These are marked by a red line on the left.