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दृश्य बनने तक

drishya banne tak

मलयज

मलयज

दृश्य बनने तक

मलयज

और अधिकमलयज

    सिर भारी जुनून तारी

    कि वक़्त और वक़्त के दो टुकड़ों के बीच

    मेरी छाया जो खड़ी है बुत

    उसे हिला दूँ जैसे डाल हिलती

    तब भद्द से गिर पड़ते हैं उस पर टँगे हुए

    बहुत पुराने फल...

    दिमाग़ में कितने जाले कितने झंखाड़

    चट्टानें आदिम युगों की संध्याओं की

    आसमानों में रौशनी पोंछ दिए जाने के खुरदुरे निशान

    कितने कितने रुँधे जलों में

    कितनी कितनी गर्दख़ोर यात्राओं के उजाड़ों

    के बिंब छितरे हुए

    काँटों के नुकीले पलों पर थमी हुई

    ढरक ढरक पड़ने को बेताब कितनी अस्मिताएँ

    सिर भारी सलवटों में नक़्शों के पुलिंदे

    जिनमें भविष्य का बुख़ार

    तह-दर-तह घूरता है

    पाँव-तले शीशे के टुकड़ों में चमकता, तमतमाता

    साँसों के आस-पास की हवा को ढकेल कर

    वक़्त का वह निर्लज्ज टुकड़ा

    मेरी खाल पर जलते हुए दिन-सा

    चिपका है

    बेमुरौवत महाजन का ब्याज बन कर

    —कोई छाया, कोई शब्द, ख़ून की कोई मचलती हरकत

    उससे छिपा कर अलग दर्ज नहीं की जा सकती

    अस्तित्व के किसी बहीखाते में

    सिर्फ़ एक अंतराल में शक्लें टूटती हैं

    बनने के पहले आँखें उछलती हैं

    दृश्य बनने तक

    स्रोत :
    • पुस्तक : अपने होने को अप्रकाशित करता हुआ (पृष्ठ 56)
    • रचनाकार : मलयज
    • प्रकाशन : संभावना प्रकाशन
    • संस्करण : 1980

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