एक युवा संन्यासिन को देखकर
कभी-कभी इसी उम्र में ऊब जाता है मन
दुनिया से
शीशे से घंटों बतियाने की बजाए
समूल केश कर्तन अच्छा लगता है
इससे पहले कि काया में आए भरपूर बँधाव
अवमुक्ति इच्छा जाग उठती है
खिलते फूल, आकार पाते फल, आँखों में अंजन
गिलहरी की धारियाँ
कुछ भी नहीं भाता
रौंद दिया जाता है अपने भीतर की हरी-भरी क्यारी को
नहान में न आ जाए कहीं नहाने का आनंद
खाने में न आ जाए कहीं खाने का स्वाद
ये देखना होता है
और अनदेखा करना होता है पुरवैया में डोलता फूल
अनसुनी करनी होती है पपीहे की पी-पीऽऽ
एक पवित्र अनश्वरता अहर्निश आगाह
करती है
बाँध बुद्धि को, कि कहीं विचारों के कल्ले न फूट पड़ें
बाँध हृदय को कहीं कोई झंकार न फूट पड़े
राख है यह काया राख मल इसमें
विराग के महासमूह में विचर षोडशी
सातों समुद्रों को रीता समझ
पर यह क्या, जिस पर खड़ी हो तुम
वह पृथ्वी घूम रही है धुरी पर उसी तरह
न उसके ऋतुचक्र थम रहे हैं न तुम्हारे ही
ये देखो एक बाँझ पेड़ क़लम लगते ही कैसा
खिलखिला उठा
देखो फिर वसंत आया
गाँठ-गाँठ कसमसा रही है कोपल बनने के लिए
फिर फल-फूल रहे हैं पेड़
बौर आ गए हैं
ये फिर पाएँगे अपने खोए आत्म-बीज को
ठूँठ कभी नहीं पाएँगे...
- रचनाकार : हरीशचंद्र पांडे
- प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित
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