वे ख़ुद टाट और काई से नहीं बनी थीं
उनकी माताएँ थीं
और वे ख़ुद माताएँ थीं।
उनके नाम थे
जिन्हें बचपन से ही पुकारा गया
हत्या के दिन तक
उनकी आवाज़ में भी
जिन्होंने उनकी हत्या की!
उनके चेहरे थे
शरीर थे, केश थे
और उनकी परछाइयाँ थीं धूप में।
गंगा के मैदानों में उनके घंटे थे काम के
और हर बार उन्हें मज़दूरी देनी पड़ी!
जैसे देखना पड़ा पूरी पृथ्वी को
गैलीलियो की दूरबीन से!
वे राख और झूठ नहीं थीं
माताएँ थीं
और कौन कहता है? कौन? कौन वहशी?
कि उन्होंने बग़ैर किसी इच्छा के जन्म दिया?
उदासीनता नहीं थी उनका गर्भ
ग़लती नहीं थी उनका गर्भ
आदत नहीं थी उनका गर्भ
कोई नशा—
कोई नशा कोई हमला नहीं था उनका गर्भ
कौन कहता है?
कौन अर्थशास्त्री?
उनके सनम थे
उनमें झंकार थी
वे माताएँ थीं
उनके भी नौ महीने थे
किसी व्हेल के भीतर नहीं—पूरी दुनिया में
पूरी दुनिया के नौ महीने!
दुनिया तो पूरी की पूरी है हर जगह
अटूट है
कहीं से भी अलग-थलग की ही नहीं जा सकती
फिर यह निर्जन शिकार मातृत्व का?
तुम कभी नहीं चाहते कि
पूरी दुनिया उस गाँव में आए
जहाँ उन मज़दूर औरतों की हत्या की गई?
किस देश की नागरिक होती हैं वे
जब उनके अस्तित्व के सारे सबूत मिटाए जाते हैं?
कल शाम तक और
कल आधी रात तक
वे पृथ्वी की आबादी में थीं
जैसे ख़ुद पृथ्वी
जैसे ख़ुद हत्यारे
लेकिन आज की सुबह?
जबकि कल रात उन्हें ज़िंदा जला दिया गया!
क्या सिर्फ़ जीवित आदमियों पर ही टिकी है
जीवित आदमियों की दुनिया?
आज की सुबह भी वे पृथ्वी की आबादी में हैं
उनकी सहेलियाँ हैं
उनके कवि हैं
उनकी असफलताएँ
जिनसे प्रभावित हुआ है भारतीय समय
सिर्फ़ उनका वर्ग ही उनका समय नहीं है!
कल शाम तक यह जली हुई ज़मीन
कच्ची मिट्टी के दिए की तरह लौ देगी
और
अपने नए बाशिंदों को बुलाएगी।
वे ख़ानाबदोश नहीं थीं
कुएँ के जगत पर उनके घड़ों के निशान हैं
उनकी कुल्हाड़ियों के दाग़
शीशम के उस सफ़ेद तने पर
बाँध की ढलान पर उतरने के लिए
टिकाए गए उनके पत्थर
उनके रोज़-रोज़ से रास्ते बने हैं मिट्टी के ऊपर
वे अचानक कहीं से नहीं
बल्कि नील के किनारे-किनारे चलकर
पहुँची थी यहाँ तक।
उनके दरवाज़े थे
जिनसे दिखते थे पालने
केश बाँधने के रंगीन फ़ीते
पपीते के पेड़
ताज़ा कटी घास और
तंबाकू के पत्ते—
जो धीरे-धीरे सूख रहे थे
और साँप मारने वाली बर्छी भी।
वे धब्बा और शोर नहीं थीं
उनके चिराग़ थे
जानवर थे
घर थे
उनके घर थे
जहाँ आग पर देर तक चने की दाल सीझती थी
आटा गूँधा जाता था
वहाँ मिट्टी के बर्तन में नमक था
जो रिसता था बारिश के दिनों में
उनके घर थे
जो पड़ते थे बिल्लियों के रास्तों में।
वहाँ रात ढलती थी
चाँद गोल बनता था
दीवारें थीं
उनके आँगन थे
जहाँ तिनके उड़ कर आते थे
जिन्हें चिड़ियाँ पकड़ लेती थीं हवा में ही।
वहाँ कल्पना थी
वहाँ स्मृति थी।
वहाँ दीवारें थीं
जिन पर मेघ और सींग के निशान थे
दीवारें थीं
जो रोकती थीं झाड़ियों को
आँगन में जाने से।
घर की दीवारें
बसने की ठोस इच्छाएँ
उन्हें मिट्टी के गीले लोंदों से बनाया था उन्होंने
साही के काँटों से नहीं
भालू के नाख़ून से नहीं
कौन मक्कार उन्हें जंगल की तरह दिखाता है
और कैमरों से रंगीन पर्दों पर
वे मिट्टी की दीवारें थीं
प्राचीन चट्टानें नहीं
उन पर हर साल नई मिट्टी
चढ़ाई जाती थी!
वे उनके घर थे—इंतज़ार नहीं।
पेड़ के कोटर नहीं
उड़ रही चील के पंजों में
दबोचे हुए चूहे नहीं।
सिंह के जबड़े में नहीं थे उनके घर
पूरी दुनिया के नक़्शे में थे एक जगह
पूरे के पूरे
वे इतनी सुबह काम पर आती थीं
उनके आँचल भीग जाते थे ओस से
और तुरत डूबे चाँद से
वे इतनी सुबह आती थीं
वे कहाँ आती थीं? वे कहाँ आती थीं?
वे क्यों आती थीं इतनी सुबह
किस देश के लिए आती थीं इतनी सुबह?
क्या वे सिर्फ़ मालिकों के लिए
आती थीं इतनी सुबह
क्या मेरे लिए नहीं?
क्या तुम्हारे लिए नहीं?
क्या उनका इतनी सुबह आना
सिर्फ़ अपने परिवारो का पेट पालना था?
कैसे देखते हो तुम इस श्रम को?
भारतीय समुद्र में तेल का जो कुआँ खोदा
जा रहा है
क्या वह मेरी ज़िंदगी से बाहर है?
क्या वह सिर्फ़ एक सरकारी काम है?
कैसे देखते हो तुम श्रम को!
शहरों को उन्होंने धोखा और
जाल नहीं कहा
शहर सिर्फ़ जेल और हारे हुए मुक़दमे
नहीं थे उनके लिए
उन्होंने शहरों को देखा था
किसी जंगली जानवर की आँख से नहीं!
शहर उनकी ज़िंदगी में आते-जाते थे
सिर्फ़ सामान और क़ानून बनकर नहीं
सबसे अधिक उनके बेटों के साथ-साथ
जो इस समय भी वहाँ
चिमनियों के चारों ओर
दिखाई दे रहे हैं!
उनकी हत्या की गई
उन्होंने आत्महत्या नहीं की
इस बात का महत्त्व और उत्सव
कभी धूमिल नहीं होगा कविता में!
वह क्या था उनके होने में
जिसके चलते उन्हें ज़िदा जला दिया गया?
बीसवीं शताब्दी के आख़िरी वर्षों में
एक ऐसे देश के सामने
जहाँ संसद लगती है?
वह क्या था उनके होने में
जिसे ख़रीदा नहीं जा सका
जिसका इस्तेमाल नहीं किया जा सका
जिसे सिर्फ़ आग से जलाना पड़ा
वह भी आधी रात में कायरों की तरह
बंदूक़ों के घेरे में?
बातें बार-बार दुहरा रहा हूँ मैं
एक साधारण-सी बात का विशाल प्रचार कर रहा हूँ!
मेरा सब कुछ निर्भर करता है
इस साधारण-सी बात पर!
वह क्या था उनके होने में
जिसे जला कर भी
नष्ट नहीं किया जा सकता!
पागल तलवारें नहीं थीं उनकी राहें
उनकी आबादी मिट नहीं गई राजाओं की तरह!
पागल हाथियों और अंधी तोपों के मालिक
जीते जी फ़ॉसिल बन गए
लेकिन लकड़ी का हल चलाने वाले
चल रहे हैं
रानियाँ मिट गईं
जंग लगे टिन जितनी क़ीमत भी नहीं
रह गई उनकी याद की
रानियाँ मिट गईं
लेकिन क्षितिज तक फ़सल काट रही
औरतें
फ़सल काट रही हैं।
__________________
ज्योर्दानो फ़िलिप्पो ब्रूनो सोलहवीं सदी के महान इतालवी वैज्ञानिक-दार्शनिक थे। उन्होंने चर्च के वर्चस्व और धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती देते हुए कोपरनिकस की इस स्थापना का समर्थन किया कि ब्रह्मांड के केंद्र में सूर्य है और हमारी पृथ्वी के अलावा और भी पृथ्वियाँ हैं। सन् 1600 में ईसाई धर्म न्यायालय के आदेश पर उन्हें ज़िंदा जला दिया गया। बाद में महान वैज्ञानिक गैलीलियो ने इसी वैज्ञानिक चेतना का विकास किया।
- पुस्तक : दुनिया रोज़ बनती है (पृष्ठ 56)
- रचनाकार : आलोकधन्वा
- प्रकाशन : राजकमल प्रकाशन
- संस्करण : 2015
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