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अनाहत नीरवता के नग्न लोक में

anahat niravta ke nagn lok mein

वीरेंद्र कुमार जैन

वीरेंद्र कुमार जैन

अनाहत नीरवता के नग्न लोक में

वीरेंद्र कुमार जैन

और अधिकवीरेंद्र कुमार जैन

    इस वन अटवी का

    यह निरवछिन्न विराट सन्नाटा :

    पार-पारांतर के

    उन आकाशलीन पर्वतों की

    अखंड निस्तब्धताएँ,

    लोकातीत, कालातीत शांतियाँ—

    इस अरण्यानी की

    निरालय विजनता में

    अनाहत अव्याहत बहती हैं।

    रह-रह कर, सब-कुछ,

    एक अननुभूत निश्चलता में

    विश्रब्ध, निस्तब्ध

    सुस्थिर हो जाता है।

    बहती हवाएँ,

    इस निर्जल नदी-शैया की

    वीरान ख़ाकी चट्टानों में

    शिलीभूत हो जाती हैं :

    वनांतरालों में जहाँ की तहाँ गुमसुम

    मूर्तियाँ बनी-सी खड़ी रह जाती हैं।

    वनानियों से झाँकती नीलिमाएँ

    नीलम का शून्य शिला-प्रांतर हो रहती हैं :

    अनवरत हिलते-डोलते काँपते मर्मराते

    झाड़, डाल, लता, ग़ुल्म, फूल और पत्तियाँ

    उस नीलम के शिला-प्रांतर में

    माणिक, पन्ने, पुखराजों की

    निस्पंद चित्रसारी हो रहते हैं...।

    पुरातन झाड़ों के

    गुहा-कोटरवाले तनों में बृहदाकार,

    अतल पातालों की

    भयावनी भुजंगम शांतियाँ

    अफाट मुँह बाए

    निश्चल खड़ी ताक़ती हैं...!

    माटी के भीतर की गुह्य अँधियारियाँ

    नग्न होकर

    इस निस्पंदता में

    चुपचाप गतिहीन रेंगती-सी लगती हैं...!

    वन-बाँबियों के साँप

    इस अखंड नीरवता का

    अनहद पुंगीनाद सुन

    बाहर गए हैं,

    और फुंकृत फणीकृत होकर

    दिशाओं पर छा गए हैं।

    गोहरे, गिरगिट, छिपकलियाँ—

    असंख्यात रेंगती जीव-सृष्टियाँ,

    कीट-पतंगे, टिटहरियाँ, गौरैयाँ—

    इस काली माटी की

    नग्न हो उठी अंधकार-राशियों में,

    स्रोत :
    • पुस्तक : कहीं और (पृष्ठ 47)
    • रचनाकार : वीरेंद्र कुमार जैन
    • प्रकाशन : भारतीय ज्ञानपीठ
    • संस्करण : 2007

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