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शुभ्रा

shubhra

अमन त्रिपाठी

और अधिकअमन त्रिपाठी

    मैं तुम्हें एक एकदम नए नाम से पुकारना चाहता हूँ

    प्रेम में जलते हुए बुख़ार में जलने वाले क़िस्सों से बहुत ईर्ष्या रखता आया हूँ

    ना ही प्रेम में सोते में चौंक कर उठ पाया कि कुछ अशोच्य सोच लिया हो

    हाँ, रक़ीबों के नाम सुनकर मन बैठ जाता था क्योंकि तुम बहुत उत्साहित रहती हो हरदम

    तुम्हारे दुःख में भी असंभव दुःख

    हँसी में कैसी आदिम हँसी

    चिंता में कैसी नमकीन चिंता

    सबसे कोमल त्वचा खुरचते हुए कष्ट

    प्रेम में कैसा तो गाढ़ा प्रेम

    प्रेम में ईर्ष्या महसूस हुई तो लगा कि गदहजनम छूट गया

    सड़कों पर भटका, रोया तो ज़िम्मेदार लगने लगा

    अब तुम्हें देखता हूँ तो सोचता हूँ कि तुम सोती कैसे हो

    कैसे चलती हो

    दौड़ती कैसे हो

    बोलती हो तो क्या

    कैसे बोलती हो

    मैं इतना शुष्क हो जाता हूँ कि बारिश में भी नहीं भीग पाता

    वर्षा की हर बूँद मानो नाभिक के इधर-उधर छितरा जाती है

    क्या तुम भी

    इतनी ही शुष्क हो जाती हो कि बाहर से अपनी शुष्कता देखती हो?

    और तुम्हारी सीली आवाज़ तुम्हारी शुष्कता पर परत बन जाती है?

    कैसी असंभाव्यिता!

    लेकिन वह वर्षा अचानक से तुम पर गिरने लगी और मैं भीगने लगा तो लगा कि कहीं वह नाभिक तुम तो नहीं!

    फिर मैं क्या हूँ?

    इलेक्ट्रॉन?

    मेरे समय की ढेर सारी मेधा अमूर्तन को मानने और मानने देने की ज़िद में ख़र्च होती है

    जबकि मेरे पास भी अमूर्तन के लिए कोई आधार नहीं

    मेरे पास तो अभी

    तुम्हारे लिए एक नया नाम है

    और मैं देख रहा हूँ कि फिर से

    फिसल गया है कोई नाभिक

    किसी अमूर्तन में

    बरसने को कितना बरसा पर भीगा क्या

    कुछ नहीं!

    स्रोत :
    • रचनाकार : अमन त्रिपाठी
    • प्रकाशन : सदानीरा वेब पत्रिका

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