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शोषित भाषा का बयान

shoshait bhasha ka byan

मानबहादुर सिंह

मानबहादुर सिंह

शोषित भाषा का बयान

मानबहादुर सिंह

और अधिकमानबहादुर सिंह

    तुम्हारी सुखपीड़ित दिव्य कविता

    मेरे माथे पर

    चाँदी की झालर-सी धरी है

    जबकि

    मेरे हर आखर में

    बोलते मुखों की

    भूख बोलती है

    नसों में खौलते ख़ून की

    मुठभेड़ डोलती है।

    मेरे पाँव तुम्हारे अर्थ के एक

    ऐसे चौराहे पर ठिठके हैं

    जहाँ दिशाओं में

    पूर्णविराम के बरछे गड़े हैं।

    मेरी निश्छल आँखों में

    उगे ख़यालों के जवान सपनों को

    अपनी चालाक जिरहों से

    बद्धी करते हो

    तुम्हारे व्याकरण ने

    अपनी तहज़ीब की दीवाल में

    चुनी मेरी दुधमुँही चीख़ें

    एक भड़भूजे-सा

    सूखी पत्तियों की तरह मुझे फेंकते हो

    चबाने के लिए कच्चे वक़्त को

    भूनते हो

    अपने घटिया माल को

    नक़ली ऊँचे भाव में

    मुझसे बेचते हो

    मेरे कानों में आल्हा का झूठ दहाड़ते हो

    मुझे भड़काते हो

    उस लड़ाई के लिए

    जिसमें औरतें जीती जाती हैं

    देश की तरह

    देश भोगे जाते हैं औरतों की तरह।

    तुमने मेरी नंगी पीठ पर

    आज्ञा-वाक्यों की सड़कें बिछा दी हैं

    अब मेरी मुट्ठीबंद कलाइयाँ

    प्रश्नचिह्न-सी मोड़ पर खड़ी हैं

    तुम्हारी मंज़िलों के ख़िलाफ़

    अब तुम्हारी यात्रा की चाबुक-मारों से

    मेरे जिस्म पर उपटी

    ख़ूनी तेवरों में लिखी

    एक मामूली कविता

    मेरी माँग में सिंदूर-सी भरी है।

    स्रोत :
    • पुस्तक : रचना संचयन (पृष्ठ 49)
    • संपादक : जीवन सिंह, केशव तिवारी
    • रचनाकार : मानबहादुर सिंह
    • प्रकाशन : बोधि प्रकाशन
    • संस्करण : 2016

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