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शीशा

shisha

जसवंत दीद

और अधिकजसवंत दीद

    अजीब शक़्ल

    घर में घूमती इधर-उधर

    मैं घर के हर बंदे को

    मेहमान को

    पूछता रहता हूँ—

    शक्ल अजीब नहीं है?

    आख़िर मैं एक शीशा उखाड़ता हूँ

    घर की नींव से

    और उसके भीतर

    बंद करके शक़्ल अपनी

    फ़र्श पे फोड़ देता हूँ

    मेरे हाथों में

    जाते हैं मेरे बाल

    जिन्हें मैं आख़िर

    घर की छत के ऊपर लहरा देता हूँ

    स्रोत :
    • पुस्तक : विपुल दिगंत (पृष्ठ 79)
    • रचनाकार : मूल एवं हिंदी अनुवाद जसवंत दीद
    • प्रकाशन : साहित्य अकादेमी
    • संस्करण : 2016

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