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शीर्षकविहीन क्षणिकाएँ

shirshakawihin kshanikayen

हरिराम मीणा

हरिराम मीणा

शीर्षकविहीन क्षणिकाएँ

हरिराम मीणा

और अधिकहरिराम मीणा

     

    एक 

    जो ज़मीन से नहीं थे जुड़े
    वे ही ज़मीनों को ले उड़े। 

    दो 

    जेठ की उस दुपहर तो
    फट ही गया था आसमान का ज्वालामुखी
    वह तो कवच था पसीने का 
    जो मैं चलता ही गया जानिबे-मंज़िल।

    तीन 

    उम्र की बल्लियों पर
    टाँगता रहा जीवन का हर पल
    पता ही न चला
    पाँवों को कितना धॅंसाता ले गया ज़मीन का दलदल।

    चार

    विमर्शों के नक़्क़ारख़ाने में
    मेरी अस्मिता तलाशती है
    कोई कुँवारा टापू।

    पाँच

    यह कैसा अद्यतन संस्करण काल का
    जिसके पाटे पर क्षत-विक्षत इतिहास
    चिता पर जलते आदर्श 
    जिनके लिए शहीद हुए थे कितने ईसा और सुकरात।

    छह

    भूमंडलीकरण के रथ पर सवार पूँजी 
    बाज़ार की ध्वजा
    विज्ञापन के बाण
    और लक्ष्य आम आदमी के सपने।                                                      

    सात  

    दुनिया का भला आदमी
    रोटी के लिए लड़ता-लड़ता
    बन गया सबसे बुरा।

    आठ 

    तलाश रहा मैं 
    कबसे आग वह
    जो कर दे राख दूसरी को।

    नौ 

    काली रात के ख़ौफ़नाक साए में
    उम्मीद के खंभों पर
    वह बुज़ुर्ग टाँगे जा रहा था
    असंतोष के पोस्टर।

    स्रोत :
    • रचनाकार : हरिराम मीणा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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