शक्ति की प्रार्थना
shakti ki pararthna
उल्टा कर चक्राकार रात के सन्नाटे को
खोल दो स्वर्गीय तेजोमय क़ब्रों को
एक बार गोश्त देने वाली ठंडे स्तनों की छोरी
मूक गुप्त पानी जैसी एक बार संपूर्ण-हुई-सी
नारी,
इन
फिलवक़्त की
अस्तंगत भुजाओं में
उल्टा दो
इस स्तब्ध रोशनी को
रिसने दो
अंतिम
अँधियारा सितारा
और गर्भाशय खोलकर
सुलझ दो गहराई तक
यह एकांत
घर का बाहर का
एकांत अंगार
खोल दो फिर से
बंद राशिचक्र
उग आया है जहाँ से
मेरे अस्तित्व का
ग्रह
उल्टा दो, उल्टा दो
तुम्हारे शरीर का
उभरा हुआ स्तम्भ
मेरी देह पर
सम्भार
निहुरा दावानल
अंतर्भूत
भस्म
बहा डालो मेरी
त्वचा पर उभरे हुए
लाखों करोड़ों
स्पर्शजन्य प्रश्नचिह्न
कर दो
तुम्हारा दुर्बोध
प्राण फैलाव
मेरे भीतर
कर दो अभिभूत
मेरे अँधियारे परिशून्य को, उभरे हुए मेरुदंड
और उत्स्फूर्त लिंग को
ऐ चमत्कृति, ऐ चक्रमयी
ले जाओ सैलाब मेरी अंतर्वलयित देह भीतर से
मेरी नाभि-भीतर से स्फुरित
प्रलय की प्रकटता में
आनंद के
आओ
आ रही हो तुम
देह को थर्राती हुई
उगाती हुई,
रोंगटों के गंधर्वो को
मेरी त्वचा की
अनगिनत मिट्टियों से
आओ
आ रही हो तुम
उफनती हुई
लहरों पर से
सभी चप्पुओं से
बुझा कर
विराट सन्नाटा
हर एक
मेरे हकदार
अस्तित्व की
निगाह
समा कर
मैं सुन रहा हूँ समुद्र की
तालाबन्दी को खुलते हुए
मैं सुन रहा हूँ तालों की
शृंखलाओं को टूटते हुए
मैं सुन रहा हूँ अपनी ही श्रुतियों को
फूटने वाले अमानुष नखाग्रों को
आलोकित नगाड़ा
विलय का लंगर
भीतर उलझी हुई
विलम्बित लय
मैं सुन रहा हूँ
तुम्हारे थर्राते चरणों को
बेहोश माथे के भीतर
मैं सुन रहा हूँ
मौन के दरम्यान
स्थिर
पानी का नजारा
ऐन तल्खी में
झगमगाती हुई
तुम्हारी एक ही आँख
और मृतवत्
स्वर्गीय नृत्य
विलम्बित लय में
आओ,
आ रही हो तुम
मेरे पास चौतरफ़ा से
घर से
घिर कर
रिक्त रगों में
अंतिम मानसून
अलख निरंजन
ये धन, ये ईंधन
ये जलते जा रहे जन्म-जन्म से चरण
ये वक्री क्षण
ये मार्गस्थ प्रहर
जा रहे हैं अब
भाग रहे हैं
सभी कांक्षाओं की
जानलेवा ढलान
तलछट तक
ठेठ
जहाँ सिर्फ़
तुम्हारा सफ़ेद नाच
और पुण्यों को जलाने वाली
अगाध आँच को
सम्मिलित होना है
थय थय
तक थय थय
दुर्दमनीय विलम्बित
लय में एक साथ
आओ, आ रही हो तुम
अनिवार्य
अकथ्य अनारम्भ
संचरण करो
तुरंत
पैरों तले, खीलों को
फोड़ कर
आओ, आ रही हो तुम
हो चुका है तुम्हारा
दारुण आरंभ
क्षितिजों में से
सुलझ रही है तुम्हारी
मूल गुत्थी
मेरे मस्तिष्क में
ये नब्ज़
अब लबालब
ये नज़्ज़ारे
अब दोयम
दुर्बोध निर्यमक
दुस्साध्य कलिका
खिल रहा है
तुम्हारा अचूक
अश्लाध्य ढोंढ़
पाखें बिखेर कर
उन्नत
नग्न
नृत्यमग्न त्रिशूल
मरण्यमयी देह को
खोल कर मैं भी
कर देता हूँ मेरे
क़ब्र का
थिएटर खुल्लम् खुल्ला
स्तम्भित हो जाती है
मेरी आँखों की
रोमन घड़ियाँ
मेरी रातों के
बीचों बीच प्रकटती है
गूढ़ सरस्वती
मेरे नथुने
महक जाते हैं
गंध को छेद कर
मेरे पेट पर
उठती हैं लहरें
प्रकटता है मेरा
समूचा ललाट
एक ही लय में
आकर्ण
हिरण्यगर्भ
पिघल जाती है
विलंबित लय
आओ, आ रही हो तुम
बजने लगे हैं गुह्यतन्तु
आसुरी हवाओं पर
विच्छिन्न करता है
एक-एक तोड़ा
एक-एक मर्म
मर्माघातों का
चढ़ा ठेका
धुनकता है पुरुष को
तीव्र तार से
तुम हो उत्तुंग
बदरिया पत्थर
चाँदनी का बनकर
आ रही हो दुनिया पर
गर्जना के साथ
तुम हो
अतिवास्तव मटकी
ठुकरा दे रही हो
ठीकरी-ठीकरी काले कलूटे क़दमों से
विलम्बित लय
आओ, आ रही हो तुम
छुन छुन
छन्नक
छिनाल
बदतमीज़ पायल
किसने रक्षा की मेरी खोपड़ी की
जब दिन दहाड़े
अज्ञान की कबाड़ में
ठीक दोपहर के समूचे फर्नीचर के नीचे
अंग में समा गया अंग?
किसने सुरक्षा की
मेरी सूक्ष्म आँखों की
जब सभी शहर
औंधे हो गए थे?
किसने वृषण का
तौल दिया था गुरुत्वमध्य
पाशवी घर्षण में?
किसने भूखे
पेट में टटोला था
अनादि आनंद को?
तुम हो मेरी क़लम का
पहला तथा आख़िरी
फाल और फर्राटा
तुम हो मेरी
ज़िद का सिलबट्टा
तुम मेरी मध्यस्थ
शांति का उदयास्त
तुम मेरी हर एक
छलाँग का कुआँ
अतलस्पर्श्य
मैंने तोड़ दिया है टहनियों को, आओ
मैंने समेट लिया है
सरपट जड़ों को, आओ
मैं हो गया हूँ मौन
ज़िंदादिली का तना
चलाओ कुल्हाड़ी
डाल दो पानी
लतिया दो मेरी
ईर्ष्या के किनारे पर का
एकमात्र कमंडल
फोड़ दो मेरी
इच्छा का कटोरा
कुचल दो मेरी
संचेतना का व्याघ्र चर्म
उखाड़ दो मेरी
यातनाओं की जटाएँ
गाड़ दो मुझे
तुम्हारे विराट
अँधियारे नारीत्व के भीतर
विलम्बित लय में
मेरा अंग-अंग हो गया है पीपल
त्रैलोक्य की पागल हवाएँ चल रही हैं
आओ, स्मृति में तालियों की गूँज हो रही है।
उल्टा कर रात के
चक्रमय सन्नाटे को
स्वर्गीय तेजोमय
कबरों को खोलकर
मूकगुप्त पानी जैसी
एक बार संपूर्ण-हुई-सी
नारी :
सुनो ये धड़ाम से टूटती टहनियों को
मेरी प्रज्ञा के शुभ्र ज़ख़्म
देख लो मेरी इंद्रियों ने की हुई
अतिविशाल अफरातफरी का भेद खुला हुआ
सूँघ लो
इस फटते हुए माथे को
लो यह स्वाद
मेरे बिखरते हुए चरित्र का
करो स्पर्श
इस अनुभव की खुरण्डों को
जिन्हें खरोंच कर निकाला गया है
काट दो इस गूँगे जलचर को
घोट दो गला इस सर्वांग पशु का
कुचल दो इस उत्फुल्ल फूल को
तहस नहस कर दो इस तन्मय परिंदे को
उड़ान के बीचोंबीच
अनिवार्य दुःस्वप्न भीतर का दावानल
लपलपाती हुई आती है आग की लौ
और भस्म हो जाते हैं
जागृति के किनारे
उस सर्वस्व के
सर्वांगीण विराट अंधे संचार को समाप्त कर दो अब
कर दो समाप्त अब अँधेरा और रोशनी को
काट दो सभी उँगलियों के भीतर के पोरों के पार्थिव जोड़
फाड़ कर निकालो अब समूचे शरीर पर का चमड़े का दिशा भ्रम
अब फोड़ दो आँतों में बरसों तक बढ़ाई हुई उग्र बाम्बी को
अब इन हार्दिक विवेकों का भी कर दो जीर्णोद्धार
जला दो मुझे तुम्हारी विक्षिप्त लपट से
बना दो मेरा कीचड़ तुम्हारे प्रक्षेपी पैरों तले
बह जाने दो तुम्हारे प्रलयतम प्रपात से
घुमा कर फेंक दो तुम्हारी अत्यन्तिक चक्करदार आँधी में
गोदना तुम्हारे साक्षात्कारी शुभ्रतप्त सुए से
मेरे शरीर पर सहनशीलता से पहले का अमोघ नक्षत्र
खोल दो
मेरे पाँचों ही प्राण
तुम्हारी थिरकनी की
बेदम सम पर...
धूमिल ही था
इससे पहले का प्रत्येक दर्शन
अकल्पित
रास्ते पर का
एक ही
निरंतर भूखा मनुष्य :
इत्र जैसी तीव्र
तथा अधुखुली आँखे
एक ही नारी की
अस्पताल में
आधी रात की मर्क्यूरी रोशनी में
विराट गुम्बद के नीचे बजते हुए
मेरे अपने ही बेचैन एड़ियों के जूते...
शराब का गरारा गर्म और दाहक
पानी में लहलहाता हरसिंगार
और हिलते हुए बदन का सुख-अतिरेक
लुढ़कते हुए दायरे से
देख लिया है मैंने तुम्हारा
सलोना उद्दीपक अँगूठा
जगमगाता हुआ
उस अंतिम
लय के इशारे को
देखकर थर्राया हूँ मैं
डर गया हूँ
और इसी दरम्यान तुम्हारा हल्का सा पाँव हँसकर
सहसा गायब हो गया...
अब आओ
सीधे साक्षात्
अब
हमारी मुलाकात
संपूर्ण उभय
अब हमारी आँखें
अपने आप गहन
अब हमारे चेहरे
सिर्फ़ झूले
अब अस्तित्व के
मूल धरातल का
खुलेगा भेद
तुम्हारे अनारम्भ
अँगूठे के नीचे
उल्टा कर सन्नाटे को
रात के चक्रमय
खोलकर कबरों को
ठंडी तेजोमय
स्वर्गीय नारी,
आओ, इस फिलवक़्त की
भुजाओं के अस्त में:
- पुस्तक : साठोत्तर मराठी कविताएँ (पृष्ठ 54)
- संपादक : चंद्रकांत पाटील
- रचनाकार : दिलीप पुरुषोत्तम चित्रे
- प्रकाशन : साहित्य भंडार
- संस्करण : 2014
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