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शहर

shahr

यशवंत कुमार

और अधिकयशवंत कुमार

    एक

    जब भी बीमार हुआ

    फ़ौरन गाँव की रेल पकड़ी

    मैं उस जगह पर

    मरना नहीं चाहता था

    जहाँ लोग जीते जी मर रहे थे

    और मरते हुए जी रहे थे

    मैं उस जगह पर

    मरना नहीं चाहता था

    जहाँ ‘मरने’ शब्द का

    अर्थ-विच्छेद हो गया हो

    ...

    दो

    फ़ोन पर पहले

    सिसकने की आवाज़ आई

    फिर एक अधूरा वाक्य बिखर गया—

    ‘माँ अब नहीं रहीं’

    एक दिन इसी तरह का

    फिर कोई फ़ोन आएगा

    और कहा जाएगा—

    ‘पिता अब नहीं रहे’

    मैं उनके जीवन में

    उत्सव की तरह आया था

    वे मेरे जीवन से महज़

    एक सूचना की तरह गए

    ...

    तीन

    ऐसे कई मौक़े आए

    जब मैंने चाहा

    कि मैं इतनी ज़ोर से चिल्लाऊँ

    कि पूरा शहर अगर सो रहा हो तो

    अपनी नींद खो बैठे

    पर मैंने इन सभी मौक़ों पर

    केवल एक सिसकी से काम चलाया

    शहर ने मुझे मितव्ययी होना सिखाया था

    स्रोत :
    • रचनाकार : यशवंत कुमार
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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