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शहर की नाक

shahr ki nak

जसिंता केरकेट्टा

जसिंता केरकेट्टा

शहर की नाक

जसिंता केरकेट्टा

और अधिकजसिंता केरकेट्टा

    हर मौसम में यह शहर

    चढ़ाए रहता है अपनी आँखों पर

    एक काला चश्मा

    जिससे यह भ्रम होता रहे

    कि चश्मे के उस पार से

    इसे दिखता है सब कुछ,

    दरअसल शहर के पास आँखें नहीं हैं

    चेहरे पर एक लंबी नाक भर है।

    इसके पास

    आदमी की गंध नहीं है

    मगर आदमी के पास

    शहर की गंध है।

    यह नहीं जानता

    क्या है आदमी होना,

    इसलिए इसका पहला पाठ यही है

    कि रुपयों के बिना

    इस शहर में

    आदमी हो पाना मुश्किल है।

    यह इंसानों की गंध नहीं पहचानता

    इसलिए सूँघता है दूर से ही

    सड़क पर या गलियों में,

    झुंड में या फिर अकेले

    राह चलती लड़कियों की गंध

    और टूट पड़ता है एक साथ

    जैसे कुत्तों के झुंड को

    दिख गया हो

    कोई मांस का टुकड़ा।

    यह पहचान लेता है

    कन्या-भ्रूण की गंध

    जैसे पहचानता है

    धूल की गंध

    लोहे की गंध

    बारूद की गंध

    मांस की गंध

    ख़ून की गंध।

    मगर मिट्टी की गंध

    बारिश की गंध

    पेड़ की गंध

    जंगल की गंध

    आदमी की गंध

    सिर्फ़ इसकी कल्पना में है।

    जब कभी टकराती है

    इसकी नाक से कोई आदिम गंध

    एक आदमी निकल आता है

    इसकी कल्पनाओं से बाहर

    और यह शहर छूकर देखता है

    उस आदमी की आँखें बड़ी हैं

    मगर नाक है छोटी-सी,

    ख़ुश होता है यह सोच

    अच्छा है!

    लंबी नाक सिर्फ़ उसी के पास है

    और गर्व से अपना सीना फुलाता है।

    पूछता है छोटी नाक वालों को

    होती होगी दिक़्क़त

    गंधों को पहचानने में,

    आदिम गंध से सना आदमी कहता है

    जब हर चीज़ खड़ी हो एक साथ

    अपने अनूठेपन पर बिना बोले

    किसी की भिन्नता को

    निम्नता के तराज़ू पर बिना तौले

    तब क्या ज़रूरत है लंबी नाक की?

    क्या इतना काफ़ी नहीं

    कि वह पहचानता है

    पृथ्वी की आत्मा को,

    पहाड़ की आवाज़ को,

    समय की पीड़ा को,

    ज़मीन की धमनियों में

    दौड़ते रक्त के मर्म को

    और पृथ्वी की देह से उठती इंसानी गंध को।

    स्रोत :
    • रचनाकार : जसिंता केरकेट्टा
    • प्रकाशन : हिन्दवी के लिए लेखक द्वारा चयनित

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